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|संग्रह=यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल
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 <Poem>
कुछ न जानता हुआ-सा
 
उठा सुबह
 
मुझे न जानती हुई
 
उड़ी चिड़िया
 
चीर आकाश को ।
 
उलझी हुई
 
कन कन
 
धूप
 
उतरी
 
बिखरी हरे बीच
 
कोमलतम
 
पत्तियों की खुलीं
 
आँखें
 
ताकती
 
न जानती हुई
 
मुझे
 
ओ! फिसलन भरी सतह
 
तुम नहीं तुम नहीं
 
चाहिए मुझे
 
तहें
 
रखने की चीज़ें
 
सुबह की ।
</poem>
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