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<Poem>
 
शहर के इस मुहल्ले में
 
पहली बार आया
 
और देखा लड़की को।
 उसकी आँखों में, चहरे चेहरे पर 
नहीं देखा अपरिचय
 
तो बार-बार देखा
 
समय से हटकर
 
गली के मोड़ से
 
खिड़कियों से
 
आँखों की कोर से।
 
वह सुबह उठती है
 
साफ़ करती है घर, बर्तन, कपड़े
 
सड़कों, चौराहों को पार कर
 
प्रशिक्षण के लिए जाती है कहीं
 
सुबह-शाम गलियों में घूमती है
 
ठहर-ठहर कर
 
खिड़कियों-दरवाज़ों पर खड़ी रहती है
 
मुझे देख मुस्कुराती है
 घर-गाँव की लड़कियों कि की तरह। 
</poem>
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