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Kavita Kosh से
किस तरह सिक्का जमे,<br>
दूभर हुई है ज़िन्दगी ॥<br><br>
शकुनी की चालाकियांचालाकियाँ <br>
आज भी तो कम नहीं ।<br>
भीष्म की चतुराइयों में भी,<br>
सिर झुकाती ज़िन्दगी ॥ <br><br>
पर कुछ नही कह पाते हैं ।<br>
सच्चाई का दांव भी,<br>
हार जाती ज़िन्दगी ॥ <br><br>
दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएंमहत्वाकांक्षाएँ<br>
आज भी हर घर में हैं ।<br>
कर्ण की अहंकारिता<br>
नष्ट करती ज़िन्दगी ॥<br> <br>
दु:शासन आज भी तो<br>
इक्कीसवीं-सदी में भी<br>
क्यों नग्न होती ज़िन्दगी ॥ <br><br>
प्रतिशोध है यह ज़िन्दगी ।<br>
युद्ध की संभावना का<br>
यही सब देती रही है ज़िन्दगी ॥ <br> <br>
आधुनिक सभ्य समाज में भी,<br>
नारी इन्सान इंसान न बन सकी,<br>मांमाँ,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन ,<br> हाँ
बस पिस रही है ज़िन्दगी ॥ <br> <br>
कौन सी यह सभ्यता है,<br>
कुछ समझ आता नहीं।<br>
खुश यहाँ कोइ कोई नहीं,<br><br>
बस मिट रही है ज़िन्दगी ॥ <br>