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बहती है तरुणों आत्मा की प्रतिभाशाली
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
 
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
 
ये भारतीय नूतन झरने
 
अंगारों की धाराओं से
 
विक्षोभों के उद्वेगों में
 
संघर्षों के उत्साहों में
जाने क्या-क्या सहते रहते ।
 
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
 
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
धरती की प्रस्तर-माला
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
 
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
 
जन-जन के पुत्रों के हिय में
मचले हिन्दुस्तानी झरने
मानव युग के ।
 
 
इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
 
लहरों में लहराती धरती
की बाहों ने
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
 
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
 
इन झरनों में
 
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
 
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
तुम भी तो हो,
 
मानव-भविष्य का आसमान —
तुममें भी है,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
वे अपनी लाल बुनावट में
जिन कुसुमों की आकृति बुनने
के लिए विकल हो उठती हैं —
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
 
वह तुम ही हो.
 
इस रिश्ते से, इस नाते से
 
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
 
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
 
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
 
पत्थर, जंगल
 
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
 
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
 
मानव-दिगन्त के कूलों पर
 
जिन किरनों का ताना-बाना
उस रश्मि-रेशमी
क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
 
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
 
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
 
जन-जन के संघर्षों में विकसित
परिणत होते नूतन मन का ।
वह अन्तस्तल . . . . . .
क्रमशः...
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