Changes

|संग्रह=किसी रंग की छाया / सुन्दरचन्द ठाकुर
}}
<Poem>
चिड़िया हमारे लिये तुम कविता थीं
 उनके लिये छटांक छटाँक भर गोश्त इसीलिये बची रह गयीगई
वे शेरों के शिकार पर निकले
 इसीलिये छूट गये गए कुछ हिरण 
उनकी तोपों के मुख इस ओर नहीं थे
 बचे हुए हैं ज्सीलिये इसीलिये खेत-खलिहान घरबार घर-बार हमारे 
वे जितना छोड़ते जाते थे
 
उतने में ही बसाते रहे हम अपना संसार
 
 
हमने झेले युद्ध, अकाल और भयानक भुखमरी
 
महामारियों की अंधेरी गुफाओं से रेंगते हुए पार निकले
 
अपने जर्जर कन्धों पर युगों-युगों से
 
हमने ही ढोया एक स्वप्नहीन जीवन
 क़ायम की परम्पराएं परम्पराएँ रचीं हमीं ने सभ्यताएंसभ्यताएँ
आलीशान महलों, भव्य किलों की नींव रखी
 
उनके शौर्य-स्तम्भों पर नक़्क़ाशी करने वाले हम ही थे वे शिल्पकार
 
इतिहास में शामिल हैं हमारी कलाओं के अनगिन ध्वंसावशेष
 
हमारी चीख़-पुकार में निमग्न है हमारे सीनों का विप्लव
 
 
उनकी नफ़रत हममें भरती रही और अधिक प्रेम
 
क्रूरता से जनमे हमारे भीतर मनुष्यता के संस्कार
 उन्होंने यन्त्रणाएं यन्त्रणाएँ दीं जिन्हें सूली पर लटकाया 
हमारी लोककथाओं में अमर हुए वे सारे प्रेमी
 
उनके एक मसले हुए फूल से खिले अनगिन फूल
 
एक विचार की हत्या से पैदा हुए कई-कई विचार
 एक क्रान्ति के कुचले सिर से निकलीं हज़ारों क्रान्तियांक्रान्तियाँहमने अपने घरों को सजाया-संवारासँवारा
खेतों में नई फ़सल के गीत गाए
 
हिरणों की सुन्दरता पर मुग्ध हुए हम
 
 
 
 
हम मरते थे और पैदा होते जाते थे
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,062
edits