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|रचनाकार=ओमप्रकाश ओमप्रकाश् सारस्वत|संग्रह=दिन ग़ुलाब होने दो / ओमप्रकाश ओमप्रकाश् सारस्वत
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दिन बड़े हो गए
दर्द के बीज
जो सरसों की स्मृतियां स्मृतियाँ थे
फैल-फैल बरगद की
जड़ें हो गए
तत्तीरेत के मरुथल पर
सांपों साँपों का पीछा
छाया के माथे पर
अंगारी टीका
बहुत रोका छाया को
आँगन से जाने से
शांत शान्त कण जो जीवन को जलकलश थे
आग के घड़े हो गए
प्रेम के यीशु को बेंधता
कीलो का पैनापन
जहांजहाँ-जहां जहाँ बढ़े पांव पाँव लीक से हटकर वहांवहाँ-वहां वहाँ अग्निप्रश्न खड़े हो गए
पोखर को गटक गया
धूप का अजगर
प्यास की आंखों आँखों में
धूल और झक्खड़
जितने भी पल थे मोगरे की छांवों छाँवों के
सब झुलसे इरादों से चिड़चिड़े हो गए
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