भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अजीब-सी होती है, चारों ओर
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
'उन्नति' के क्षेत्रों मे, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
सोंधी गंध
कहीं नहीं, कहीं नहीं
पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ़ एक आँख से
'सफलता' की आँख से
दुनिया को निहारती फैली है
पूनों की चांदनी।
सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिचाशों और बेतालों के लिए –
मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।
मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
आशंका होती है
क्रमशः...
</poem>