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|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>

तुम मुझसे पूछ रही हो
और मैं तुमसे
पर सचमुच क्या हमारे बीच
शब्द जीवित हैं

आवाजों को दरख्त
अंधी बावड़ी में
लकवाग्रस्त गूँगे की तरह...
और फिर भी तुम पूछ रही हो
"कौन बोल रहा है ? "

तुम कुल्हाड़ी मत बनाओ
कोयले से फ़र्श पर
आतंकित मत करो कमरे को-

ये छपे शब्द
जीवित आदमी की
फुसफुसाहट भी तो नहीं
ये मृत राख में
अंधी कौड़ियों की तरह
इन्हें मत दिखाओ,

समय काटने के लिए
तुम स्वेटर क्यों नहीं बुनती
मैं नाखून क्यों नहीं काटता
समुद्र की बेहोशी की ख़बर
आकाश तक को पता
पर यह नहीं वक़्त
दरवाज़े को खोलकर
तुम कमरे को सड़क मत बनाओ

भरोसा रखो हवा पर
वह तोड़ कर रख देगी
जंगलों की चुप्पी
गूँगे नहीं रहेंगे दरख्त
मथ देगी समुद्र
झाग में तैरेंगे जीवित शब्द

तब तक
अच्छा नहीं लगता सुनना कुछ भी
तुम चुप रहो
बन्द कर दो रेडियो को...

</poem>
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