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मेरा गाँव / मोहन साहिल

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|रचनाकार=मोहन साहिल
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<poem>
मैं अभी-अभी बदहवास
पहुंचा हूं अपने गाँव
हाथ में लिए अखबार
और आँखों में वीभत्स दृष्य
लगाता हूँ आ आवाज
चिल्ला-चिल्लाकर पुकरता हूँ-
होने वाला विनाश
स्टार-वार
हो रहे हैं दंगे
मार रहे हैं लोग एक-दूसरे को

रवांडा से लेकर
काबुल तक के किस्से सुनाता हूँ
जार्ज बुश से लेकर
समझाता हूं मुशर्रफ तक के इरादे
धूमकेतू का टकराना
ओज़ोन में छेद
सब बताता हूँ

मगर ये क्या
बूढ़ी चाची सिए जा रही खींद
झुर्रियों के बीच मुस्कुराहट के साथ
सीता भाभी लगा रही हैं कमीज में बटन
मेरा हमउम्र भोला
बैलों की मालिश किए जा रहा है
मंगतू काका की तकली नहीं रुकती
नन्हा खेलने में मस्त
मुन्नी गाने में
और कितना चिंतित हूं
सबके लिए।
</poem>
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