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|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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मैं सड़क पर था
और मेरे मस्तिष्क में रविशंकर के सितार के कुछ टुकड़े
झन्ना रहे थे
मेरे दाहिने हाथ में चाबियों का एक गुच्छा था बेवज़ह खनकता हुआ
तभी नुक्कड़ पर वह प्रकट हुआ
इस कदर जैसे मेरी परछाईं में से निकलकर आया हो
उसने मुझे देखा- कुछ ऐसे जैसे वह आदमी नहीं
किसी हिंसक पशु को देख रहा हो
फिर मेरे कंडों को लगभग झकझोरते वह पूछने लगा-
"तुम्हारे हाथ में चाबियाँ क्यों हैं
और तुम्हारे इरादे क्या हैं ?"

मेरे भीतर उस वक़्त कुछ नहीं जल रहा था
मैं सिर्फ़ चल रहा था-
मैंने कहा- कुछ भी कहने को विवश नहीं हूँ मैं,
फिर भी कहता हूँ
समय के मस्तिष्क में उगी हुई गठान के कारण
भयभीत है हवा- वैसे मैं भी पूछ सकता हूँ
तुम कौन हो पर नहीं चाहता पूछना
ये चाबियाँ मेरी अपनी हैं पर मैं नहीं जानता
वे कौन से दरवाज़े जिन पर जड़े तालों से
कब इनकी मुलाक़ात होगी

वह दहाड़ा-तुम्हारी यह हिम्मत
तभी उसकी जेब में से कुछ और आदमी बहार निकलने लगे
और सबने मिल कर मेरी मुश्कें बाँध दीं
फिर टेंटुआ मसकने लगे...
मैं जब तक होश में आया
वे सब जा चुके थे
सितार के टुकड़े मेरे भीतर चिबदा गए थे

मुडी-तुडी चाबियाँ मुझसे कुछ दूर पड़ी हुई थीं
मुझे लगा जैसे वक़्त के मस्तिष्क की गठान
मेरे मस्तिष्क में उतर गयी है
और मैं हवा की भयभीत गठरी में बाँध दिया गया हूँ
अब सोचने के लिए कुछ नहीं था

केवल कुछ शब्द कानों में गूँज रहे थे
"कोशिश करो
कोशिश करो ."

</poem>
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