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नग्न भीड़ / मोहन साहिल

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<poem>
रात बहुत दूर नहीं है
डबलरोटी पेट के हवाले कर
खंबों की रोशनी में आ गया हूँ
भुतहे घर नहीं रहे रहने लायक
एक अश्लील धुन बज रही है वातावरण में
मुझे अपने कपड़े उतरते हुए महसूस होते हैं
रात से पहले ही बिल्कुल नंगा हो या हूँ

संतोष है कि मुझ पर हंसने के लए
ढंका नहीं है किसी का भी शरीर

नालियों के कीड़ों के दांत कितने पैने हो गए हैं
मैं अँधेरा तलाश रहा हूँ डरा हुआ

अपने नंगेपन और कीड़ों के लंबे दांतों से
वहशी नृत्य आरंभ होता है
सड़क धीरे-धीरे स्टेज बनती जा रही है
रंगीन बत्तियों में मोटे जिस्म नंगे
कौन सा नाच है ये

मुझे क्या, मैं तो अंधेरा तलाशने निकला हूँ
गली के उस पार बैंच पर
एक परिंदा मरा पड़ा है
नंगा पंखविहीन
गनीमत किसी ने खाने को नहीं उठाया
शायद उसे दुर्गंध बचा गई

उसकी लाश के गिर्द सुकून है
उसका पुष्ट जिस्म बताता है कि
उसने जी हैं लंबी परवाज़ें
पेड़ के शीर्ष पर उसकी आँख टिकी है
जरूर घोंसला है वहाँ

पलभर में गलियों से
बहुत से नंगधड़ंग
पेड़ को घेर खड़े हुए
पहले खुर्चा गया पेड़
मगर पेड़ भी नंगा होकर नहीं शरमाया
अचानक वह धरती पर आ गिरा
लोगों ने ठंड से बचने को पेड़ जला दिया

परिंदा, मैं और पेड़
सब जलने लगे
भीड़ अलाव के गिर्द
पागल सी नाच रही है।
</poem>
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