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रास्ता / मोहन साहिल

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<poem>
नंगे पांव बहती नाक इसी रास्ते
जाता था स्कूल बचपन में
वे पत्थर-झाड़ सब वहीं हैं
अलबत्ता अब अधिक उपेक्षित और उदास
कोई नहीं उठाता अब पत्थर
न मारता है निशाना टेलीफोन के खंबों पर
झाड़ियों में घंटों घुसकर
कोई नहीं खाता कलेंछें और भस्मधूड़ी
काँटे बीच रास्ते तक लपक आए हैं
पर अब किसी का पाजामा उनकी गिरफ्त में नहीं आता
टेलीफोन का खंबा बिन तारों के उदास खड़ा है
उसने बरसों से नहीं देखा
किसी को ठोकर खाते
और पत्थरों से कूटकर घावों पर छाँबर बूटी लगाते
उसने नहीं देखा
स्कूल न जाकर वहीं कहीं छिपे बच्चों को
जो सारा दिन चिनते रहते थे घर
और शाम को गिरा जाते थे
बरसों बाद बढ़िया पोशाक पहने
पॉलिश किए जूतों से गुजर रहा हूँ इस रास्ते से।
</poem>
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