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बस यात्रा / मोहन साहिल

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|रचनाकार=मोहन साहिल
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<poem>
जिस बस में यात्रा कर रहा हूँ
बरसों पुरानी और जर्जर है
उस पर संकरी ऊबड़-खाबड़ सड़क
और खड़ी चढ़ाई
सड़क के साथ सटा खूनी दरिया
प्रार्थनारत हूँ
ईश्वर को याद करता

बेसुध नींद में हैं
मेरी दाहिनी सीटों के यात्री
बार-बार सिर टकराने पर भी नहीं चेतते
आगे की सीटों पर
घोटालों की चर्चा है
कोसा जा रहा है नेताओं को
मेरे साथ बैठा युवक देखता है कौतूहल से
आगे बैठी युवती का हेयर स्टाईल
होंठ गोल करता है
धक्का लगते ही मगर चौंक उठता है

सीटी नहीं बजाता
सड़क का सबसे खराब हिस्सा
पार कर रही है बस
लगातार झटकों से
हिल रही हैं सबकी आंतें
झुरझुरी पैदा करता है
ड्राइवर का तना जिस्म
कठिनता से संभलेगा संतुलन
खिड़कियों से देखते यात्री
कनखियों से दरिया
और कुछ बुदबदाने लगते हैं
कुछ के बच्चे साथ हैं
गोदों में भिंचे हुए हैं
कुछ आँखों में घर का चित्र
कल छुट्टी है
सभी तो लौट रहे घर।
</poem>
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