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मत लौटाओ मुझे / मोहन साहिल

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<poem>
इस शिखर से मत धकेलो मुझे
देखो मैं
कितने बीहड़ लाँघ कर पहुँचा हूँ
मेरे गुज़रने के बाद
रास्तों के निशान मिटा गए
कितने ही ग्लेशियर

वहाँ नीचे बहुत आतंक है
कीड़ों की तरह कुलबुला रहे है आदमी
एक छोटी सी खाई में
फट चुकी है उनकी पोशाकें
उनके भीतर का दुख ठाह्कों मे बदल
एक भयानक शोर पैदा कर रहा है
मैं बर्फ़ के फाहों से ठण्डे करता आ रहा हूँ
अपने घाव

मैं भंग नहीं करूँगा तुम्हारी तपस्या
मुझे यहाँ खड़ा रहने दो तब तक
जब तक मेरा सारा रक्त
उंगलियों से बहकर
खाई की तरफ प्रवाहित नहीं हो जाता।
</poem>
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