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बर्फ का खेल / मोहन साहिल

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<poem>
ज़मीन पर उतरे बर्फ के फाहे
जम गए मेरे घर के सामने
तह-दर-तह
रात की जमी बर्फ़ पर बूट रखकर
सुबह धमकाया मैंने उसे
वह घबराकर टुकड़े हो गई

मैंने छत से नर्म बर्फ़ ले
एक गोला बनाया और खाई में फेंक दिया
फिर दिनभर बनाया बर्फ़ का राक्षस
शाम को लात मारकर गिरा दिया
राक्षस ढेर हो गया
मैं बर्फ पर फिसला-कूदा
उसे जी भर कर रौंदा

दूसरे दिन चमकी धूप
सारी बर्फ़ पानी बन बह गई मैं पागलों की तरह
ढूंढ रहा हूँ बर्फ़्।
</poem>
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