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बच्चे की हथेली / मोहन साहिल

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<poem>
अपनी आत्मा को बच्चे की हथेली पर रखकर
वह रोज़ निकलता है
एक चिरपरिचित द्वार से
सिर पर उठाए
इच्छाओं और जरूरतों का गट्ठर
और चल पड़ता है जाने पहचाने रास्तों पर

जिस पर उग आता है हर रोज़् एक कँटीला झाड़
गुज़रते लोग सदा की तरह तय करते हैं रास्ता
लौट आते हैं घर हँसते मुस्कुराते
उन्हें कहीं नहीं दीखता कँटीला झाड़
वे कभी नहीं देते बच्चे के हाथ में आत्मा
उसे रखते हैं अलमारी में गहनों के बीच

जिनके सिरों पर नहीं होता गट्ठर
वे कूदते-फाँदते करते हैं रास्ता पार

जिसकी आत्मा रहती है बच्चे की हथेली पर
वह रोज रास्ते में गट्ठर उतार
करता है रास्ता साफ
वह चिंतित है रास्ते के लिए
साफ रखना चाहता है
उसे राह चलते बच्चों के लिए।
</poem>
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