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चिड़िया / रेखा

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<Poem>
आज बीसवीं बार
बेदख़ल किया
उन काली कर्कश चिड़ियों को
न कुल न शील
साथ लिए चलती हैं
मनहूस बीहड़
मरघट का मातमी शोर
चमगादड़ों की बस्तियों से
खदेड़ी हुई रफ्यूजिनें
जब भी आती हैं
अतिवृष्टि-अनावृष्टि
या प्राकृतिक आपदाओं का
भय लेकर आती हैं


आज बीसवीं बार
जब उनके घोंसले गिराए

वे आस-पास
चोंच भरा गारा उठाए
विलाप करती रहीं
पँख पटकती दीवारों से
बूँद की तरह
थरथरा रही हूँ

पारदर्शी अर्द्रता को
छू भर देती हैं
रँगों में इँद्रधनुष बनाते हुए
कैसे समझ लेती हैं
पीड़ा में छटपटा रही हूँ
शब्दों में उतरने के लिए
याद भर आती हैं बस।
शब्द पखेरू हो जाते हैं

नहीं जानते कैसे
लौट आती हैं बेटियाँ
प्रवासी चिढ़ियों की तरह
मन की मौन झीलों में
किस पुकार पर जाना ही होता है इन्हें
फिर कौन बुला लेता है
ऊँचे पहाड़, घने जँगल, गहरी नदियाँ
सब लाँघकर आ जाती हैं बेटियाँ
सावन की तीज पर
शब्दों के गीत बनाती
हवाओं का झूला

कोई नहीं आया
जिन्होंने रचा वे ब्रह्माजी
न जाने किस चौकी पर
बने दारोगा
सोये रहे लम्बी ताने
नहीं आए कहीं से भी
अखबारों के सँवाददाता
कैमरामैन
बुलडोज़र चले, उजड़ती रहीं
नाजायज़ बस्तियाँ

एक कवि था जिसे
मिट्टी, पँख और बीटों की बीच
आशियानों का भ्रम
ज़िन्दा रखना था

क्लूटी चिड़िता में देखनी थी
चिल-चिल धूप में
तगारी उठाए
मज़दूर औरत की थकान
सुनना था चीख़-पुकार
एक औरत का
घर के लिए चीख़-पुकार
प्रसव की पीडा अपने जायों के लिए
पूरे ब्रह्माण्ड में
सिर्फ एक ओट।
इक्कीसवीं बार
चिड़िया आई तो
आने दिया
कुछ देर पहले
बेटी ने फ़ोन पर कहा था
क्या करूँ माँ,
इस बेगाने देश में
घर बनाना आसान नहीं
</poem>
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