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कम्बल / अनूप सेठी

764 bytes removed, 18:14, 22 जनवरी 2009
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आओ दोस्त आओ कैसे हो हमारी ननिहाल की तरफ चारखानेदार कंबलों का चलन रहा है आखिर स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा फिर से सर्दियों में ओढ़ने बिछाने को, सुबह में रात कोजब इतिहास पढ़ाते होंगे बच्चों आंधी तूफान में, झड़ी बरसात में, लपेटने को नर्म गर्म एक अददज़ुबान लड़खड़ा जाती होगी राजनीति कंबल हर किसी के सिद्धाँत बताते वक्त पास होता हैटीवी और अखबारों ओस में जरा सा भीग जाएभेड़ की तस्वीरें आँखों के आगे नाचती होंगी ऊन सा महकने लगता हैसमाजशास्त्र दूर शहर की क्लास ठिठुरन में तो पैरों भी सब कुछ आंखों के सामने नाचने लगता हैफफोले ज़रूर दुखते होंगे भेड़ों के झुंड, गोशाला, गोबर, घास, आमों का बौर और बिल्व के गोल गोल फल
कक्षा कहते हैं खङ्ढी वाली नानी गांव में भी ऐसे ही कलेजा कड़ा किए रहते रह गई थी जब लाहौर सरहद पार हो दोस्त गया थाजैसे तुम इस वक्त दिख नानी सबके लिए बुनती रही पुरखों की तरहसबके सब पुरखों की तरह ओढ़ते रहे हो चारखानेदार कंबलशहर में आते वक्त भी पास में थी यहीपता नहीं कितना समंदर अपने अंदर थामे हुए नर्मी गर्मी और खुशबू
भैया मुझ तक को दिखती रहती है तुम्हारी छ: दिसंबर की रात के बाद जब सब डरने लगेजली हुई रसोई मेज़ और कुर्सी मैं कंबल ओढ़े अकेला सोयाबच्ची की झुलसी हुई कुर्ती सपने में दिखी खङ्ढी वाली नानी रोती थीऔर जी पंखनुचे कबूतर सा फड़फड़ाता है पुराने आम का पेड़ आंगन में गिर गया थाबेल भी ढह गया थागांव के सब लोगों ने चारखानेदार चादर दोनों दरख्तों पर ओढ़ा रखी थी मातम में बैठे थे सब रोते बिलखतेआंसुओं से तर हो गई चादर उठने लगीभेड़ों की गोबर की घास की बौरों की बेल के फलों की महक
ऐसे में भाई सुबह सूरज तुमसे नज़र कैसे मिलाता होगा नींद खुली भड़ाक से दिन भर तुम्हारे अंदर लावा उफनता होगा हवा चल रही थी बंबई जल रही थीरात को कैसे आती होगी सांस चीखें चिल्लाहटें थीं मर्म भेदीगर्दन पसीने से तर थीकंबल की खुशबू सूंघने की अब सुध न थीभय था बेहद कंबल चिपक चिपक जाता था छाती से
ज़रा हिम्मत जुटाओ तो बताओ अंधियारे में निकल पड़ा महानगर की सड़कों पर गलियों मेंसारे हाल जानना चाहता हूं चालों की झोंपड़ियों की जलती ढहती छतों पर पांव पड़ेगोलियां गिरीं चीखों पर चीखें भागने लगीं बदहवासहड़बड़ाहट में लगा जैसे कंबल मुझसे छूट गया
दोस्त और मेरे बीच विकट मौन था जो न कभी देखा सुना न कभी झेला भोगा था पुरानी किताबों के ढेर में छिपा रहा दम साधे कई दिन तक
हौले से वो बोला लगभग फुसफुसा के जैसे खुद को सुबह हुई तो सन्नाटा गहरा थाइस बयान से अनजान रखना चाहता जैसे कोई बोलेगा तो फिर कोई हादसा हो जाएगा
राख बनी बस्तिओं पर सहमी और थमी हुई हवा में देखा चारखानाभव्य अट्टालिकाएं उग आएंगी एक दिन तार तार हो गया था गोलियों से छिल गया थाएक दिन शायद सब सुलट भी जाएगा तलवारों से कट गया था चीखों से चिर गया थाखून से सन गया था आश्वासनों से लिथड़ गया था
एक बार फिर खड़ा था हमारे बीच मौन बहुत भारी कदमों से जले हुए मलवे से बचता रास्ता ढूंढताविकट ही नहीं हताश भी।घर आया किसी तरह ठंड और बुखार से ठिइुरता
बहुत देर तक हम कंबल की ढेरी के पास बैठ बहुत रोए
नन्हीं सी बच्ची ने तार तार कंबल के छेद में
फूलों जैसे अपने पैर फंसा रखे थे
अपने ऊपर खींचे जाती थी
विश्वास नहीं होता अब चिथड़ा चारखाने में
फूल भी खिल सकते हैं
'''दोस्त'''जब बच्ची बड़ी हो जाएगीसुनेगी कंबल और ननिहाल की दंतकथा सी बातेंपता नहीं उसे भेड़ों की गोबर की घास की बौरों की बेल के फलों की महक आएगीया फटे चारखाने से डर डर जाएगी।
आओ दोस्त आओ कैसे हो आख़िर स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा फिर से जब इतिहास पढ़ाते होंगे बच्चों को ज़ुबान लड़खड़ा जाती होगी राजनीति के सिध्दांत बताते वक्त टीवी और अखबारों की तस्वीरें आंखों के आगे नाचती होंगी समाजशास्त्र की क्लास में तो पैरों के फफोले ज़रूर दुखते होंगे  कक्षा में भी ऐसे ही कलेजा कड़ा किए रहते हो दोस्त जैसे तुम इस वक्त दिख रहे हो पता नहीं कितना समंदर अपने अंदर थामे हुए  भैया मुझ तक को दिखती रहती है तुम्हारी जली हुई रसोई मेज़ और कुर्सी बच्ची की झुलसी हुई कुर्ती और जी पंखनुचे कबूतर सा फड़फड़ाता है  ऐसे में भाई सुबह सूरज तुमसे नज़र कैसे मिलाता होगा दिन भर तुम्हारे अंदर लावा उफनता होगा रात को कैसे आती होगी सांस  ज़रा हिम्मत जुटाओ तो बताओ सारे हाल जानना चाहता हूं  दोस्त और मेरे बीच विकट मौन था जो न कभी देखा सुना न कभी झेला भोगा था  हौले से वो बोला लगभग फुसफुसा के जैसे खुद को इस बयान से अनजान रखना चाहता हो  राख बनी बस्तिओं पर भव्य अट्टालिकाएं उग आएंगी एक दिन एक दिन शायद सब सुलट भी जाएगा  एक बार फिर खड़ा था हमारे बीच मौन विकट ही नहीं हताश भी। '''(दोस्त की जगह मैं असली नाम रखना चाहता था। इत्तिफाकन वह मुसलमान है। महज़ इसलिए एक दोस्त और एक शख्सियत को संबंधवाचक संज्ञा में बदलना पड़ा। माहौल ऐसा है कि अगर वो पहचान लिया जाए तो मारा भी जा सकता है। नाम बदला भी जा सकता था। कहीं इस नाम का कोई और शख्स इस धरती पर हुआ तो उसकी जान भी खतरे में पड़ जाएगी। दोस्त! तुम्हें संज्ञा में बदलने का दुख है। माफ करना। अपने समय पर हमें शर्म है।)(1993)'''
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