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समुद्र भर रात / अनूप सेठी

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धीरे-धीरे खिड़की की ग्रिल बाकी रहती है
पर्दों के रँग धूसर होते जाते हैं
सड़क हर पहिए के साथ दहलती है

एक समुद्र हठात् अंदर आने लगता है
घुप्प फैलता जाता है

बाहों से काटता हूँ
पानी गहरा और भारी
जैसे पँखा घूमता है
सारी रात

सड़क किनारे के खम्भे से निकलती है
पस्त लहरों सी पटकती है सिर
दीवार पर आकर ग्रिल की छाया

कोई रास्ता नहीं बाकी
इतना भारी है समुद्र।
(1987)

</poem>
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