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पाऊस / अनूप सेठी

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बिन बोले लग आती है भूख
बिन बोले आ जाती है पाऊस

वो सिर और कमर से बांध के
चिथड़े की झोली
झट झट बीन कर कचरे के ढेर से
प्लास्टिक पोलिथिन के टुकड़े
भरती जाती है
बेपरवाह सुनसान
कमर में बांधे चिथड़े की झोली

कचरे में एक ब्लाऊज़ मिला
दो ही जगह से उधड़ा है
उसने दो हाथों से पकड़ के
तान दिया आकाश में

पाऊस झमाझम बरसने लगा
औरत ओट ढूंढती भागने लगी
दुनिया भर के कचरे पर से

दूर सड़क किनारे
अधडूबे ठिकाने पर जाकर ठहरी

साँस थमती न थी
पेड़ उखड़ गए
पुरानी दीवारें ढहने लगीं
आकाश रोने लगा धारासार
धरती डूब चली कचरे में
औरत खड़ी है भीगती पाऊस में।

(1989)

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