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गड्ढा / अनूप सेठी

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<Poem>
यह गङ्ढा दो अँगुल गहरा
हाथ भर लँबा चौड़ा
सड़क किनारे बेमालूम

पानी से भरा है यानी बारिश हो के चुकी है
चाँद चमकता है जब उसकी सीध में आता है
जब टहलता हुआ आगे निकल जाता है
लैम्प पोस्ट फिर से टिमटिमाने लगती है
इसके दिल के करीब

कोई पहिया गङ्ढे को रोंद जाता है
गीली मिट्टी का छोटा सा घेरा बनता है
पसलियों की तरह पत्थरों के नुक्कर दिखते हैं
उभरे हुए जरा जरा से
यहां टहलता था चांद
लैम्प पोस्ट इसी जगह टिमटिमाती थी
मिट्टी छिटकती दूर सुदूर जा गिरती
ओझल होती जाती
तेज धावती सड़क किनारे

इसमें बारिश गिरती चाँद चमकता तारे मंडरातेँ हैं
शहर भर की बस्तियां जलती बुझती हैं
हाथ भर के इस आइने में अँधेरा भी प्रतिबिंबित होता है

साइकिल सवार कोई गिरते गिरते बचता
बच्चा जब रुआंसा हो आगे बढ़ता
इसके हिरदे में बुल्ले शाह की काफी के बोल गूँजते
सड़क की आपाधापी में
अफीम खाकर यह अमली ऊँघता रहता है

नजर से ओढल हुआ रहता यह धब्बा
किसी का मौन या मायूसी
या सहमी हुई किसी की मासूमियत है
अड़ियल घोड़ा है
घाव है या घाव का निशान है
जो टीसता भी नहीं
या बिसरा हुआ कोई मिसरा है
(1999)
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