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<br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।सरीरा॥<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।के॥<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।छाए॥<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।रतनारे॥<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।मोला॥<br>मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।लजाहीं॥<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।बलसींवा॥<br>सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।लोना॥<br>दो0दो०-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।अपान॥२३३॥
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<br>चौ०-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।पानी॥<br>बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।लेहू॥<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।निहारे॥<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।छोभा॥<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता।।सभीता॥<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली।।आली॥<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।मानी॥<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने।।जाने॥<br>दो0दो०-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।। 234।।थोरि॥२३४॥
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<br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।मूरति॥<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।खानी॥<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही।।लीन्ही॥<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।जोरी॥<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।चकोरी॥<br>जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।गाता॥<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।जाना॥<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।बिहारिनि॥<br>दो0दो०-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।सेष॥२३५॥
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<br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।पिआरी॥<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।सुखारे॥<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।कें॥<br>कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।बैदेहीं॥<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।मुसुकानी॥<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।भरेऊ॥<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।तुम्हारी॥<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।राचा॥<br>छं0छं०-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।रावरो॥
<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।चली॥<br>सो0सो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।लगे॥२३६॥<br>हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।भाई॥<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।नाहीं॥<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।दीन्ही॥<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।सुखारे॥<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।पुरानी॥<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।भाई॥<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।पावा॥<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।नाहीं॥<br>दो0दो०-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।रंक॥२३७॥<br>–*–*–<br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।।पाई॥<br>कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।तोही॥<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे।।कीन्हे॥<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।जानी॥<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।बिश्रामा॥<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।लागे॥<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।सुखदाता॥<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।बानी॥<br>दो0दो०-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।बलहीन॥२३८॥<br>–*–*–<br>चौ०-नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी।।भारी॥<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।अवसाना॥<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।सुखारे॥<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।प्रकासा॥<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।दिखाया॥<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।परिपाटी॥<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।नहाने॥<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।नाए॥<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।पठाए॥<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।भाई॥<br>दो0दो०-सतानंदûपद सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।बोलाइ॥२३९॥<br><br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
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 <br>सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।बड़ाई॥<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।होई॥<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।मानी॥<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।साला॥<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।पाई॥<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।नारी॥<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।हँकारी॥<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।काहू॥<br>दो0दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।अनुहारि॥२४०॥
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<br>राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।छाए॥<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।सरीरा॥<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।पूरे॥<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।तैसी॥<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।सरीरा॥<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।भारी॥<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।देखा॥<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।सुखदाई॥<br>दो0दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।अनूप॥२४१॥
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<br>बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।सीसा॥<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।जैसें॥<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।बखानी॥<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।प्रकासा॥<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।दाता॥<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।कथनीया॥<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।कोऊ॥<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।कोसलराऊ॥<br>दो0दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।चोर॥२४२॥
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<br>सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।सोऊ॥<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।के॥<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।बरनी॥<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।बोला॥<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।नासा॥<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।लजाहीं॥<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।बनाईं॥<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।सीवाँ॥<br>दो0दो०-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।बिसाल॥२४३॥
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<br>कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।।काँधे॥<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।छाए॥<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे।।तारे॥<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई।।जाई॥<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।देखाई॥<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।कोऊ॥<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।बिसेषा॥<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।लहेऊ॥<br>दो0दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।महिपाल॥२४४॥
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<br>प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।तारे॥<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।नाहीं॥<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।माला॥<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।गवाँई॥<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।अभिमानी॥<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।बिआहा॥<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।सोऊ॥<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।सयाने॥<br>सो0सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।के॥<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।बाँकुरे॥२४५॥<br>ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।बुताई॥<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।सीता॥<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।निहारी॥<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।बासी॥<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।धाई॥<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।पावा॥<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।लागे॥<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।गाना॥<br>दो0दो०-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।लवाईं॥२४६॥
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<br>सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।खानी॥<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।अनुरागीं॥<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।लेई॥<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।कमनीया॥<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।जानी॥<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।बैदेही॥<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।सोई॥<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।मारू॥<br>दो0दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।समतूल॥२४७॥
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<br>चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।।बानी॥<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।भारी॥<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।बनाए॥<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।नारी॥<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई।।गाई॥<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।भुआला॥<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।नरनाहा॥<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।पाई॥<br>दो0दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।।सकुचानि॥<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि।।248।।आनि॥२४८॥
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<br>राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।निमेषें॥<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।माहीं॥<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।सुहाई॥<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू।।बिबाहू॥<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू।।दाहू॥<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।जोगू॥<br>तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।आए॥<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।थोरा॥<br>दो0दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल।।249।।बिसाल॥२४९॥
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<br>नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।।काहू॥<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे।।सिधारे॥<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।।तोरा॥<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही।।बिनहिं बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।तेही॥<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे।।माखे॥<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।नाई॥<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं।।करहीं॥<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं।।जाहीं॥<br>दो0दो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।गरुआइ॥२५०॥
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<br>भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।टारा॥<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।जैसें॥<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।संन्यासी॥<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।हारी॥<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।समाजा॥<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।साने॥<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।ठाना॥<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।रनधीरा॥<br>दो0दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।दमनीय॥२५१॥
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<br>कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।चढ़ावा॥<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।छड़ाई॥<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।जानी॥<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।बिबाहू॥<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।करऊँ॥<br>जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।हँसाई॥<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।दुखारी॥<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।रिसौंहें॥<br>दो0दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।प्रमान॥२५२॥
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<br>रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।कोई॥<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।जानी॥<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।अभिमानू॥<br>जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।उठावौं॥<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।तोरी॥<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।पुराना॥<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।सोऊ॥<br>कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।धावौं॥<br>दो0दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।भाथ॥२५३॥
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<br>लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।डोले॥<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।सकुचाने॥<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।पुलकाहीं॥<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।बैठारे॥<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।बानी॥<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।परितापा॥<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।आवा॥<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।लजाएँ॥<br>दो0दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग।।254।।भृंग॥२५४॥
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<br>नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।प्रकासी॥<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।लुकाने॥<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।सेवा॥<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।मागा॥<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।गामी॥<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।सुखारी॥<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।हमारे॥<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं।।गोसाईं॥<br>दो0दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ।।255।।बिलखाइ॥२५५॥
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<br>सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे।।हमारे॥<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।नाहीं॥<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।दापा॥<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।लेहीं॥<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।जानी॥<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।रानी॥<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।।संसारा॥<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।भागा॥<br>दो0दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।256।।खर्ब॥२५६॥
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<br>काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।।कीन्हे॥<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी।।रानी॥<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।प्रीती॥<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।तेही॥<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।भवानी॥<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।गरुआई॥<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।सेवा॥<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।थोरी॥<br>दो0दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।।धीर॥<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।सरीर॥२५७॥
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<br>नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।छोभा॥<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।हानी॥<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।होई॥<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।किसोरा॥<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।हीरा॥<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।तोरी॥<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।निहारी॥<br>अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।जाहीं॥<br>दो0दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।डोल॥२५८॥
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<br>गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।अवलोकी॥<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।सोना॥<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।आनी॥<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।राचा॥<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।दासी॥<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।संहेहू॥<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।जाना॥<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।जैसे॥<br>दो0दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु।।259।।ब्रह्मांडु॥२५९॥
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<br>दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।डोला॥<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।मोरा॥<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।मनाए॥<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।अभिमानू॥<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।कदराई॥<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।दावा॥<br>संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई।।बनाई॥<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू।।कड़हारू॥<br>दो0दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।बिसेषि॥२६०॥
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<br>देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।तेही॥<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।तड़ागा॥<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।पछितानें॥<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।बिसेषी॥<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।लीन्हा॥<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।भयऊ॥<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।ठाढ़ें॥<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।कठोरा॥<br>छं0छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।कलमले॥
<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही।।उचारही॥<br>सो0सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस।।261।।बस॥२६१॥<br>प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।सुखारे॥
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<br>कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।सुहावन॥<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।।भारी॥<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना।।गाना॥<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा।।असीसा॥<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला।।रसाला॥<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी।।जानी॥<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी।।भारी॥<br>दो0दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर।।262।।चीर॥२६२॥
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<br>झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई।।सुहाई॥<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।।गाए॥<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी।।पानी॥<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई।।पाई॥<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।।छूटे॥<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।स्वाती॥<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।।जैसें॥<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।कीन्हा॥<br>दो0दो०-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार।।263।।अपार॥२६३॥
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<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।।जैसें॥<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।छाई॥<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।काहू॥<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी।।अवरेखी॥<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।।सुहाई॥<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।जाई॥<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।।जयमाला॥<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।मेली॥<br>सो0सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।264।।कुमुदगन॥२६४॥<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।राजे॥<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।असीसा॥<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।छूटीं॥<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं।।उच्चरहीं॥<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।चापा॥<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।बिसारी॥<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।ठोरी॥<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।भीता॥<br>दो0दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।।265।।जानि॥२६५॥
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<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे।।माखे॥<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।लागे॥<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।दोऊ॥<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई।।बरई॥<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।भाई॥<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी।।लजानी॥<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई।।सिधाई॥<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।।लाई॥<br>दो0दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।266।।होहु॥२६६॥
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<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।भागू॥<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।सिवद्रोही॥<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।लहई॥<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।नरनाहा॥<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी।।रानी॥<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।माहीं॥<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।करनीया॥<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।सकहीं॥<br>दो0दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप।।267।।चोप॥२६७॥
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<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।गारीं॥<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा।।पतंगा॥<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।।लुकाने॥<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।बिराजा॥<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।आवा॥<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।रिसाते॥<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।।मृगछाला॥<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें।।काँधें॥<br>दो0दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप।।268।।भूप॥२६८॥
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<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।।भुआला॥<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।प्रनामा॥<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी।।खुटानी॥<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।करावा॥<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं।।सयानीं॥<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।भाई॥<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा।।जोटा॥<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।मोचन॥<br>दो0दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।।भीर॥<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर।।269।।सरीर॥२६९॥
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<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए।।आए॥<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे।।डारे॥<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।।तोरा॥<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू।।राजू॥<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।।माहीं॥<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी।।सोचहिं नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।भारी॥<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।बिगारी॥<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।बीता॥<br>दो0दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।श्रीरघुबीरु॥२७०॥
<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम
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<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।तुम्हारा॥<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।कोही॥<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।लराई॥<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।मोरा॥<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।राजा॥<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।अपमाने॥<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।गोसाईं॥<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।भृगुकुलकेतू॥<br>दो0दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार।।सँमार॥<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।271।।संसार॥२७१॥
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<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।समाना॥<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।भोरें॥
<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।मोरा॥<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।मोही॥<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।द्रोही॥<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।दीन्ही॥<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।महीपकुमारा॥<br>दो0दो०-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।घोर॥२७२॥
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<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।भटमानी॥<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।पहारू॥<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।जाहीं॥<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।अभिमाना॥<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।रोकी॥<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।सुराई॥<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।तुम्हारें॥<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।कुठारा॥<br>दो0दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।गभीर॥२७३॥
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<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।घालकु॥<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।असंकू॥<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।नाहीं॥<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।हमारा॥<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।पारा॥<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।बरनी॥<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।सहहू॥<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।सोभा॥<br>दो0दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।274।।प्रतापु॥२७४॥
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<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।बोलावा॥<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।घोरा॥<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।बधजोगू॥<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।साँचा॥<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।साधू॥<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।गुरुद्रोही॥<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।तुम्हारें॥<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।थोरें॥<br>दो0दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।अबूझ॥२७५॥
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<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।संसारा॥<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।जीकें॥<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।बाढ़ा॥<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।खोली॥<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।पुकारा॥<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।नृपद्रोही॥<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।बाढ़े॥<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।नेवारे॥<br>दो0दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।276।।रघुकुलभानु॥२७६॥
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<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू।।कोहू॥<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना।।अयाना॥<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।।भरहीं॥<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी।।ग्यानी॥<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने।।मुसकाने॥<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।पापी॥<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं।।नाहीं॥<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं।।मौहीं॥<br>दो0दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।277।।प्रतिकूल॥२७७॥
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<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।।दाया॥<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने।।पिराने॥<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई।।बोलाई॥<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं।।नाहीं॥<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।।भारी॥<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी।।हानी॥<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।।तोरा॥<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं।।जैसैं॥<br>दो0दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।278।।बाम॥२७८॥
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<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।।पानी॥<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।काना॥<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।।काऊ॥<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा।।तुम्हारा॥<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।।नाई॥<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।उपाई॥<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।।अनैसें॥<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।कीन्हा॥<br>दो0दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।279।।भूपकिसोर॥२७९॥
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<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।।नृपघाती॥<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।काऊ॥<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा।।नावा॥<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला।।फूला॥<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।।बिधाता॥<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।गेहू॥<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा।।ढोटा॥<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।।नाहीं॥<br>दो0दो०-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु।।280।।प्रबोधु॥२८०॥
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<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।जोरें॥<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।रामा॥<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।तोही॥<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ।।नाएँ॥<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।।दोषू॥<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।राहू॥<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।सीसा॥<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी।।अनुगामी॥<br>दो0दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।281।।दोसु॥२८१॥
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<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी।।बिचारी॥<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा।।दीन्हा॥<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।।गोसाईं॥<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।।घनेरी॥<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा।।कहहु नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।।माथा॥<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।तोहारा॥<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।तुम्हारें॥<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।हमारे॥<br>दो0दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।282।।बाम॥२८२॥
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<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।तोही॥<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।कृसानु॥<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।आई॥<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।कीन्हे॥<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।भोरें॥<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।ठाढ़ा॥<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।हमारी॥<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।अभिमाना॥<br>दो0दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।283।।माथ॥२८३॥
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<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।।बलवाना॥<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।होऊ॥<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना।।आना॥<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।।रघुबंसी॥<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई।।डेराई॥<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के।।के॥<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।संदेहू॥<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।भयऊ॥<br>दो0दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात।।284।।अमात॥२८४॥
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<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।कृसानु॥<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।हारी॥<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।नागर॥<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।अनंगा॥<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।हंसा॥<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।भ्राता॥<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।हेतू॥<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।पराने॥<br>दो0दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।सूल॥२८५॥
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<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।साजे॥<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।कोकिलबयनी॥<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।पाई॥<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।चकोरकुमारी॥<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।रामा॥<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई।।गोसाई॥<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।आधीना॥<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु।।काहु॥<br>दो0दो०-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।286।।आचारु॥२८६॥
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<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।।बोलाई॥<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।काला॥<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।।नाए॥<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।पासा॥<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।।पठाए॥<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।पाई॥<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।।सुजाना॥<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।खंभा॥<br>दो0दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल।।287।।भूल॥२८७॥
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<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे।।चीन्हे॥<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई।।सुहाई॥<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए।।सुहाए॥<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।सरोजा॥<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा।।प्रसंगा॥<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी।।ठाढ़ी॥<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।सुहाई॥<br>दो0दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।।कोरि॥<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि।।288।।डोरि॥२८८॥
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<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।।सँवारे॥<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए।।सुहाए॥<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।।बिताना॥<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही।।केही॥<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।।उजागर॥<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी।।तैसी॥<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।।चारी॥<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।मोहा॥<br>दो0दो०-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु।।बेषु॥<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु।।289।।सेषु॥२८९॥
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<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।।सुहावन॥<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।बोलाई॥<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।।लीन्ही॥<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती।।छाती॥<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी।।मीठी॥<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।साँची॥<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई।।भाई॥<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।आई॥<br>दो0दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस।।290।।नरेस॥२९०॥
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<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।।गाता॥<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी।।बिसेषी॥<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।।उचारे॥<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।निहारे॥<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।।साथा॥<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।राऊ॥<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई।।पाई॥<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने।।मुसकाने॥<br>दो0दो०-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ।।291।।दोउ॥२९१॥
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<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे।।उजिआरे॥<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।लागे॥<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।।लीन्हे॥<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका।।एका॥<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।।बरिआरा॥<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।भानी॥<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू।।फेरू॥<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा।।पावा॥<br>दो0दो०-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।292।।नाल॥२९२॥
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<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।देखाए॥<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।कीन्हा॥<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।तैसें॥<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।ताकें॥<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।कोऊ॥<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।पागी॥<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।लागे॥<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना।।माना॥<br>दो0दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ।।293।।बोलाइ॥२९३॥
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<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।।छाई॥<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।नाहीं॥<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।सुभाएँ॥<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।देबी॥<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं।।नाहीं॥<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।जाकें॥<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी।।चारी॥<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।।निसाना॥<br>दो0दो०-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ।।294।।देवाइ॥२९४॥
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<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।।सुनाई॥<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।बखानीं॥<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी।।बनी॥<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं।।महतारीं॥<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती।।छाती॥<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी।।बरनी॥<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए।।बोलाए॥<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता।।देता॥<br>सो0सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के।।295।।के॥२९५॥<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।।निसाना॥<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए।।बधाए॥<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।बिआहू॥<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।लागे॥<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि।।पावनि॥<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।बनाई॥<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू।।बजारू॥<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला।।माला॥<br>दो0दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ।।296।।पुराइ॥२९६॥
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<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि।।दामिनि॥<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि।।बिमोचनि॥<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं।।लजानीं॥<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना।।बिताना॥<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना।।निसाना॥<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं।।करहीं॥<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता।।सीता॥<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा।।ओरा॥<br>दो0दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार।।297।।अवतार॥२९७॥
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<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई।।जाई॥<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता।।भ्राता॥<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए।।धाए॥<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे।।बिराजे॥<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी।।धरनी॥<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने।।उड़ाने॥<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा।।राजकुमारा॥<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी।।भारी॥<br>दो0दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन।।298।।प्रबीन॥२९८॥
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<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े।।ठाढ़े॥<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना।।निसाना॥<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए।।लाए॥<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं।।अपहरहीं॥<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।।जोते॥<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे।।मोहे॥<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई।।अधिकाई॥<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई।।बोलाई॥<br>दो0दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात।।299।।जात॥२९९॥
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<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं।।सँवारीं॥<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी।।राजी॥<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना।।जाना॥<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा।।छंदा॥<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।।लायक॥<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती।।भाँती॥<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा।।पारा॥<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई।।बनाई॥<br>दो0दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर।।300।।बीर॥३००॥
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<br>गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा।।ओरा॥<br>निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना।।काना॥<br>महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें।।पबारें॥<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी।।थारी॥<br>गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना।।बखाना॥<br>तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।बाजी॥<br>दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने।।बखाने॥<br>राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।।भ्राजा॥<br>दो0दो०-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।<br>आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु।।301।।गनेसु॥३०१॥
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<br>सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें।।जैसें॥<br>करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ।।बनाऊ॥<br>सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।।बजाई॥<br>हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता।।दाता॥<br>भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे।।बाजे॥<br>सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।सहनाई॥<br>घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं।।फहराहीं॥
<br>करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना ।
<br>दो0दो०-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान।।निसान॥<br>नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।।302।।बँधान॥३०२॥
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<br>बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।सुभदाता॥<br>चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।देई॥<br>दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा।।पावा॥<br>सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी।।नारी॥<br>लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।।पिआवा॥<br>मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।देखाई॥<br>छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।।देखी॥<br>सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।प्रबीना॥<br>दो0दो०-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।<br>जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।303।।बार॥३०३॥
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<br>मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें।।जाकें॥<br>राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता।।पुनीता॥<br>सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।।साँचे॥<br>एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।।निसाना॥<br>आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू।।सेतू॥<br>बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए।।छाए॥<br>असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए।।भाए॥<br>नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले।।भूले॥<br>दो0दो०-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।<br>सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।304।।अगवान॥३०४॥
<br>मासपारायण,दसवाँ विश्राम
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<br>कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा।।प्रकारा॥<br>भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने।।बखाने॥<br>फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं।।पठाईं॥<br>भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना।।जाना॥<br>मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए।।पठाए॥<br>दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा।।कहारा॥<br>अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता।।गाता॥<br>देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।निसाना॥<br>दो0दो०-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।<br>जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।305।।सुबेल॥३०५॥
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<br>बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं।।बजावहिं॥<br>बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें।।अनुरागें॥<br>प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा।।दीन्हा॥<br>करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई।।लवाई॥<br>बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं।।परिहरहीं॥<br>अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा।।सुपासा॥<br>जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई।।जनाई॥<br>हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई।।पठाई॥<br>दो0दो०-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।<br>लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।306।।बिलास॥३०६॥
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<br>निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती।।भाँती॥<br>बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।बखाना॥<br>सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी।।पहिचानी॥<br>पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।अमाई॥<br>सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।।माहीं॥<br>बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।बिसेषी॥<br>हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।।छाए॥<br>चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।पिआसे॥<br>दो0दो०- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।<br>उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।लेत॥३०७॥
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<br>मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।सीसा॥<br>कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।कुसलाई॥<br>पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।समाई॥<br>सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।भेंटे॥<br>पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।लाए॥<br>बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं।।पाईं॥<br>भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।रामा॥<br>हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।गाता॥<br>दो0दो०-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।<br>मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।308।।बिनीत॥३०८॥
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<br>रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी।।बखानी॥<br>नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।तनुधारी॥<br>सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।।बिसेषी॥<br>सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना।।गाना॥<br>सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।।बंदीजन॥<br>सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।अगवाना॥<br>प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।।अधिकाई॥<br>ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।कहहीं॥<br>दो0दो०-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।<br>जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज।।।309।।समाज॥।३०९॥
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<br>जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही।।देही॥<br>इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे।।लाधे॥<br>इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं।।नाहीं॥<br>हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।बासी॥<br>जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी।।बिसेषी॥<br>पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।लाहू॥<br>कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।।सुनयनीं॥<br>बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।भाई॥<br>दो0दो०-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।<br>लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।310।।कमनीय॥३१०॥
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<br>बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।।माई॥<br>तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।सुखारी॥<br>सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।।ढोटा॥<br>स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।आए॥<br>कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।।सँवारे॥<br>भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।नारी॥<br>लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।।अनूपा॥<br>मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।नाहीं॥<br>छं0छं०-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।<br>बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।।अहैं॥<br>पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।।सुनावहीं॥<br>ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं।।गावहीं॥<br>सो0सो०-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।<br>सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।311।।दोउ॥३११॥<br>एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।।भरहीं॥<br>जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।पाए॥<br>कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।।महिपाला॥<br>गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।बराती॥<br>मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।सुहावा॥<br>ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।बिचारू॥<br>पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।।जोई॥<br>सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।बिधाता॥<br>दो0दो०-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।<br>बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल।।312।।अनुकुल॥३१२॥
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<br>उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा।।काहा॥<br>सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।ल्याए॥<br>संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।।साजे॥<br>सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता।।पुनीता॥<br>लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।।बराती॥<br>कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।सुरराजू॥<br>भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।।घाऊ॥<br>गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।समाजा॥<br>दो0दो०-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।<br>लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि।।313।।बादि॥३१३॥
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<br>सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।।निसाना॥<br>सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।जूथा॥<br>प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।।बिआहू॥<br>देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे।।लागे॥<br>चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।।नाना॥<br>नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।सुजाना॥<br>तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं।।उजिआरीं॥<br>बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।देखी॥<br>दो0दो०-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।<br>हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु।।314।।बिआहु॥३१४॥
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<br>जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।नसाहीं॥<br>करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी।।कामारी॥<br>एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा।।चलावा॥<br>देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।गाता॥<br>साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा।।सेवा॥<br>सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी।।तनुधारी॥<br>मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।।थोरी॥<br>पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे।।बरषे॥<br>दो0दो०-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।<br>पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।315।।पुरारि॥३१५॥
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<br>केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।।सुरंगा॥<br>ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।सुहाए॥<br>सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।।लजावन॥<br>सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई।।भाई॥<br>बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।।तुरंगा॥<br>राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।सुनावहिं॥<br>जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे।।लाजे॥<br>कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।बनावा॥<br>छं0छं०-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।<br>आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।।बिमोहई॥
<br>जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
<br>किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।ठगे॥<br>दो0दो०-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।<br>भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव।।316।।नचाव॥३१६॥
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<br>जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।।पारा॥<br>संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।लागे॥<br>हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।।मोहे॥<br>निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।पछिताने॥<br>सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।।लाहू॥<br>रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना।।माना॥<br>देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।।नाहीं॥<br>मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।बिसेषी॥<br>छं0छं०-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।<br>बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी।।रघुकुलमनी॥
<br>एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
<br>रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।साजहीं॥<br>दो0दो०-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।<br>चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।317।।नारि॥३१७॥
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<br>बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।।मोचनि॥<br>पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।सरीरा॥<br>सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।।लजाएँ॥<br>कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।लाजहिं॥<br>बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा।।सुमंगलचारा॥<br>सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी।।सयानी॥<br>कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई।।जाई॥<br>करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी।।जानी॥<br>छं0छं०-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।<br>कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।।भली॥<br>आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई।।भई॥<br>अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।छई॥<br>दो0दो०-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।<br>सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु।।318।।सेषु॥३१८॥
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<br>नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी।।रानी॥<br>बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।ब्यवहारू॥<br>पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।।नाना॥<br>करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।कीन्हा॥<br>दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।।लाजे॥<br>समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला।।अनुकूला॥<br>नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई।।कोई॥<br>एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।बैठाए॥<br>छं0छं०-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।।पावहीं॥<br>मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।गावहीं॥
<br>ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
<br>अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।लेखहीं॥<br>दो0दो०-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।<br>मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।समाइ॥३१९॥
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<br>मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।रीतीं॥<br>मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।लाजे॥<br>लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।आनी॥<br>सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।लागे॥<br>जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।तें॥<br>सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।आजू॥<br>देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।माची॥<br>देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।ल्याए॥<br>छं0छं०-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।हरे॥<br>निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।धरे॥
<br>कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
<br>कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।कही॥<br>दो0दो०-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।<br>दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।320।।असीस॥३२०॥
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<br>बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।।दूजा॥<br>कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई।।बहुताई॥<br>पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती।।भाँती॥<br>आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू।।उछाहू॥<br>सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।।बानी॥<br>बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।प्रभाऊ॥<br>कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ।।पाएँ॥<br>पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें।।पहिचानें॥<br>छं0छं०-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।<br>आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई।।मई॥
<br>सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
<br>अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।भए॥<br>दो0दो०-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।<br>करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।321।।थोर॥३२१॥
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<br>समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।।आए॥<br>बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई।।पाई॥<br>रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।।सयानी॥<br>बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं।।गाईं॥<br>नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।।स्यामा॥<br>तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं।।प्यारीं॥<br>बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।।जानी॥<br>सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई।।लवाई॥<br>छं0छं०-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।<br>नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं।।गामिनीं॥
<br>कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
<br>मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं।।बाजहीं॥<br>दो0दो०-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।<br>छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।322।।कमनीय॥३२२॥
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<br>सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई।।मनोहरताई॥<br>आवत दीखि बरातिन्ह सीता।।रूप सीता॥रूप रासि सब भाँति पुनीता।।पुनीता॥<br>सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।।पूरनकामा॥<br>हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।जेता॥<br>सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।।मूला॥<br>गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी।।नारी॥<br>एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।।मुनिराई॥<br>तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू।।अचारू॥<br>छं0छं०-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।<br>सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।।पावहीं॥
<br>मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
<br>भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं।।1।।रहैं॥१॥
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<br>कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
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<br>एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो।।दियो॥
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<br>सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै।।परै॥
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<br>मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै।।2।।करै॥२॥<br>दो0दो०-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।<br>बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं।।323।।देहिं॥३२३॥
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<br>जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी।।बखानी॥<br>सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई।।बनाई॥<br>समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई।।ल्याई॥<br>जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना।।मयना॥<br>कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे।।पूरे॥<br>निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी।।आनी॥<br>पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी।।जानी॥<br>बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे।।लागे॥<br>छं0छं०-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।<br>नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली।।चली॥
<br>जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
<br>जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।।1।।भाजहीं॥१॥
<br>जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
<br>मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई।।बरनई॥
<br>करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
<br>ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै।।2।।कहै॥२॥
<br>बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
<br>भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं।।भरैं॥
<br>सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
<br>करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।3।।कियो॥३॥
<br>हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
<br>तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई।।नई॥
<br>क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।
<br>करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी।।4।।भावँरी॥४॥<br>दो0दो०-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।<br>सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।सुजान॥३२४॥
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<br>कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।।नयन देहीं॥नयन लाभु सब सादर लेहीं।।लेहीं॥<br>जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।थोरी॥
<br>राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
<br>मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।अनूपा॥<br>दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।बहोरी॥<br>भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।बिसारे॥<br>प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।निबेरीं॥<br>राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।केहीं॥<br>अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।कें॥<br>बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।आसन॥<br>छं0छं०-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।<br>तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए।।नए॥
<br>भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
<br>केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा।।1।।महा॥१॥
<br>तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
<br>माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के।।के॥
<br>कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
<br>सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई।।2।।दई॥२॥
<br>जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
<br>सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै।।कै॥
<br>जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
<br>सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।3।।उजागरी॥३॥
<br>अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
<br>सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।।बरषहीं॥
<br>सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
<br>जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं।।4।।बिराजहीं॥४॥<br>दो0दो०-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।<br>जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।325।।चारि॥३२५॥
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<br>जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी।।करनी॥<br>कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी।।पूरी॥<br>कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।।थोरे॥<br>गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।सी॥<br>बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।।देखा॥<br>लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।माने॥<br>दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।।आवा॥<br>तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी।।सनमानी॥<br>छं0छं०-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।<br>प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै।।कै॥
<br>सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
<br>सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।।1।।दिएँ॥१॥
<br>कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
<br>बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।।सों॥
<br>संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
<br>एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए।।2।।लए॥२॥
<br>ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
<br>अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई।।कई॥
<br>पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
<br>कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।3।।हिए॥३॥
<br>बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
<br>दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले।।भले॥
<br>तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
<br>दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै।।4।।कै॥४॥<br>दो0दो०-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।<br>हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन।।326।।नैन॥३२६॥
<br>मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
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<br>स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।।लजावन॥<br>जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।छाए॥<br>पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती।।जोती॥<br>कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।सुंदर॥<br>पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।लेई॥<br>सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।राजे॥<br>पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती।।मोती॥<br>नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना।।निधाना॥<br>सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा।।निवासा॥<br>सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे।।गाथे॥<br>छं0छं०-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।<br>पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।।तोरहीं॥
<br>मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।
<br>सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।1।।सुनावहीं॥१॥
<br>कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
<br>अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।।कै॥
<br>लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
<br>रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।।2।।लहैं॥२॥
<br>निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
<br>चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।जानकी॥
<br>कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
<br>बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।3।।चलीं॥३॥
<br>तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
<br>चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।।कहा॥
<br>जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
<br>चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।4।।भनी॥४॥<br>दो0दो०-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।<br>सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।327।।जनवास॥३२७॥
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<br>पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती।।बराती॥<br>परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।भूपा॥<br>सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।बैठारे॥<br>धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।बरना॥<br>बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।गोए॥<br>तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।पानी॥<br>आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।।लीन्हे॥<br>सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।सँवारे॥<br>दो0दो०-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।<br>छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत।।328।।बिनीत॥३२८॥
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<br>पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।।अनुरागे॥<br>भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने।।बखाने॥<br>परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।।जाना॥<br>चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई।।जाई॥<br>छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती।।भाँती॥<br>जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।नारी॥<br>समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।समाजा॥<br>एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।दीन्हा॥<br>दो0दो०-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।<br>जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज।।329।।सिरताज॥३२९॥
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<br>नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।जाहीं॥<br>बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।लागे॥<br>देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।।जेता॥<br>प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।माहीं॥<br>करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।।बोरी॥<br>तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा।।पूरनकाजा॥<br>अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई।।बनाई॥<br>सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई।।बोलाई॥<br>दो0दो०-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।<br>आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।330।।तपसालि॥३३०॥
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<br>दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।।दीन्हे॥<br>चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई।।सुहाई॥<br>सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं।।दीन्हीं॥<br>करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू।।लाहू॥<br>पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।।बृंदा॥<br>कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।।रबिकुलनंदन॥<br>चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा।।नाथा॥<br>एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।जाहू॥<br>दो0दो०-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।<br>यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।331।।पसाउ॥३३१॥
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<br>जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती।।बिभूती॥<br>दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।अनुरागा॥<br>नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।पहुनाई॥<br>नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू।।काहू॥<br>बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती।।बराती॥<br>कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई।।समुझाई॥<br>अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू।।सनेहू॥<br>भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।नाए॥<br>दो0दो०-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।<br>भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।332।।राउ॥३३२॥
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<br>पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।बाता॥<br>सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।सकुचाने॥<br>जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।भाँती॥<br>बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।बखाना॥<br>भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा।।सुसारा॥<br>तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।सीसा॥<br>मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।लाजे॥<br>कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।नाना॥<br>दो0दो०-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।<br>जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।थोरि॥३३३॥
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<br>सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।।पठाई॥<br>चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं।।पानीं॥<br>पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।।देहीं॥<br>होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी।।हमारी॥<br>सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।अनुसरेहू॥<br>अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।बानी॥<br>सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई।।लाई॥<br>बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।नारीं॥<br>दो0दो०-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।<br>चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।334।।हेतु॥३३४॥
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<br>चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।।धाए॥<br>कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।साजू॥<br>लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।।चारी॥<br>को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।आनी॥<br>मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।।भूखा॥<br>पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे।।तैसे॥<br>निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।।करहू॥<br>एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता।।निकेता॥<br>दो0दो०-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।<br>करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।335।।सासु॥३३५॥
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<br>देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।।लागीं॥<br>रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।जाई॥<br>भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।जेवाँए॥<br>बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।बानी॥<br>राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।।पठाए॥<br>मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।नेहू॥<br>सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।।सासू॥<br>हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।कीन्ही॥<br>छं0छं०-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।<br>बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।।अहै॥
<br>परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
<br>तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।मानिबी॥<br>सो0सो०-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।<br>जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन।।336।।करुनायतन॥३३६॥<br>अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।।समानी॥<br>सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।सनमानी॥<br>राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी।।बहोरी॥<br>पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।रघुराई॥<br>मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी।।रानी॥<br>पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं।।महतारीं॥<br>पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।थोरी॥<br>पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।लवाई॥<br>दो0दो०-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।<br>मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।निवासु॥३३७॥
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<br>सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।पढ़ाए॥<br>ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।केही॥<br>भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।जाती॥<br>बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।छाए॥<br>सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।बिरागी॥<br>लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।की॥<br>समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।।जाने॥<br>बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई।।मगाई॥<br>दो0दो०-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।<br>कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।गनेस॥३३८॥
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<br>बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई।।सिखाई॥<br>दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।केरे॥<br>सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।रासी॥<br>भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।राजा॥<br>समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।साजे॥<br>दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।कीन्हे॥<br>चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।असीसा॥<br>सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।नाना॥<br>दो0दो०-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।<br>चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।निसान॥३३९॥
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<br>नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।टेरे॥<br>भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।कीन्हे॥<br>बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।राखी॥<br>बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं।।चहहीं॥<br>पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।आए॥<br>राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।बाढ़े॥<br>तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।बोरी॥<br>करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।।बड़ाई॥<br>दो0दो०-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।<br>मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति।।340।।समाति॥३४०॥
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<br>मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।पावा॥<br>सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।भ्राता॥<br>जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।जाए॥<br>राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।हंसा॥<br>करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।त्यागी॥<br>ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।गुनरासी॥<br>मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।अनुमानी॥<br>महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।रहई॥<br>दो0दो०-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।<br>सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल।।341।।अनुकुल॥३४१॥
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<br>सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।अपनाई॥<br>होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।लेखा॥<br>मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।रघुनाथा॥<br>मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।थोरें॥<br>बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।भोरें॥<br>सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।परितोषे॥<br>करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।जाने॥<br>बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।दीन्ही॥<br>दो0दो०-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।<br>भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।सीस॥३४२॥
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<br>बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।भाई॥<br>जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।लाई॥<br>सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।मोरें॥<br>जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।अहहीं॥<br>सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।अनुगामी॥<br>कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।पाई॥<br>चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।समुदाई॥<br>रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।सुखारी॥<br>दो0दो०-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।<br>अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।ûजनेत॥३४३॥û
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<br>हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।गाजे॥<br>झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।सहनाई॥<br>पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।गाता॥<br>निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।द्वारे॥<br>गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।पुराई॥<br>बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।बिताना॥<br>सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।तमाला॥<br>लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।करनी॥<br>दो0दो०-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।<br>सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।निहारि॥३४४॥
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<br>भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।मोहा॥<br>मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।सुहाई॥<br>जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।छाए॥<br>देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।केही॥<br>जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।बिलासनि॥<br>सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।भारती॥<br>भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।सोई॥<br>कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।बिसारीं॥<br>दो0दो०-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।<br>प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।चारि॥३४५॥
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<br>मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।गाता॥<br>राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।लागीं॥<br>बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।साजे॥<br>हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।मूला॥<br>अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।बिराजा॥<br>छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।बनाए॥<br>सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।रानी॥<br>रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।गाना॥<br>दो0दो०-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।<br>चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात।।346।।गात॥३४६॥
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<br>धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।ठयऊ॥<br>सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।करषहिं॥<br>मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।सँवारे॥<br>प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।दामिनि॥<br>दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।मोरा॥<br>सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।नारी॥<br>समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।कीन्हा॥<br>सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।समाजा॥<br>दो0दो०-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।<br>बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।गाइ॥३४७॥
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<br>मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।उजागर॥<br>जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।सानी॥<br>बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।अनुरागे॥<br>बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।समाहीं॥<br>पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।सुखारे॥<br>करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।सरीरा॥<br>आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।चारी॥<br>सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।सुखारी॥<br>दो0दो०-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।<br>मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।कुमार॥३४८॥
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<br>करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।पारा॥<br>भूषन मनि पट नाना जाती।।करही जाती॥करही निछावरि अगनित भाँती।।भाँती॥<br>बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।महतारी॥<br>पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित देखी॥मुदित सफल जग जीवन लेखी।।लेखी॥<br>सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।सराही॥<br>बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।सेवा॥<br>देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।ढँढोरीं॥<br>देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।अनुरागीं॥<br>दो0दो०-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।<br>बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।निकेत॥३४९॥
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<br>चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।बनाए॥<br>तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।पखारे॥<br>धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।मंगलनिधि॥<br>बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।ढरहीं॥<br>बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।सोहीं॥<br>पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।रोगीं॥<br>जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।सुहावा॥<br>मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।पाई॥<br>दो0दो०-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।।अनंदु॥<br>भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350रघुकुलचंदु॥३५०(क)।।
<br>लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
<br>मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं।।350मुसकाहिं॥३५०(ख)।।
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<br>देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।की॥<br>सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।कल्याना॥<br>अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं।।लेंहीं॥<br>भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।दीन्हे॥<br>आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।धामहि॥<br>पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।बधाए॥<br>जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।सोई॥<br>सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।सनमाना॥<br>दो0दो०-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।<br>तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।नरनाथ॥३५१॥
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<br>जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।कीन्ही॥<br>भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।जानी॥<br>पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।जेवाँए॥<br>आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।तोषे॥<br>बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।दूजा॥<br>कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी।।धूरी॥<br>भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू।।रनिवासू॥<br>पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।थोरी॥<br>दो0दो०-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।<br>पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।मुनीसु॥३५२॥
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<br>बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।आगें॥<br>नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।दीन्हा॥<br>उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।निकेता॥<br>बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई।।पहिराई॥<br>बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।दीन्हीं॥<br>नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं।।देहीं॥<br>प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।सनमाने॥<br>देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।उछाहू॥<br>दो0दो०-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।<br>कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।समाइ॥३५३॥
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<br>सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।उछाहू॥<br>जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।निहारे॥<br>लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।जेता॥<br>बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।दुलारीं॥<br>देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।बासू॥<br>कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।काहू॥<br>जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।सुहाई॥<br>बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।करनी॥<br>दो0दो०-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।<br>भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।राति॥३५४॥
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<br>मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।जामिनि॥<br>अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।छाए॥<br>रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।नाई॥<br>प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।मनोहरताई॥<br>कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।गनेसू॥<br>सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।धरनी॥<br>नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।रानी॥<br>बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।नाई॥<br>दो0दो०-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।<br>अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।लाइ॥३५५॥
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<br>भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।डसाए॥<br>सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।नाना॥<br>उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।माहीं॥<br>रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।जोवा॥<br>सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।पौढ़ाए॥<br>अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।कीन्ही॥<br>देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।माता॥<br>मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।मारी॥<br>दो0दो०-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।काहु॥<br>मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।सुबाहु॥३५६॥
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<br>मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी।।टारी॥<br>मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई।।पाई॥<br>मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।पूरी॥<br>कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।तोरा॥<br>बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।भाई॥<br>सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।सुधारे॥<br>आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।तुम्हारा॥<br>जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।लेखें॥<br>दो0दो०-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।<br>सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।नैन॥३५७॥
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<br>नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।सोना॥<br>घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।गारीं॥<br>पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी।।सजनी॥<br>सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।।गोई॥<br>प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।लागे॥<br>बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए।।आए॥<br>बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।भ्राता॥<br>जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।धारे॥<br>दो0दो०-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।<br>प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।भाइ॥३५८॥
<br>नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम
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<br>भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई।।पाई॥<br>देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।।अनुमानी॥<br>पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।।बैठाए॥<br>सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे।।अनुरागे॥<br>कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा।।रनिवासा॥<br>मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।बरनी॥<br>बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची।।माची॥<br>सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।उछाहू॥<br>दो0दो०-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।<br>उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।359।।अधिकाति॥३५९॥
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<br>सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।थोरे॥<br>नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।पाहीं॥<br>बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।रहहीं॥<br>दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।महामुनिराऊ॥<br>मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे।।आगे॥<br>नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।नारी॥<br>करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।।मोहू॥<br>अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।बानी॥<br>दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।जाती॥<br>रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई।।पहुँचाई॥<br>दो0दो०-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।<br>जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।360।।गाधिकुलचंदु॥३६०॥
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<br>बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।।बखानी॥<br>सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ।।प्रभाऊ॥<br>बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ।।गयऊ॥<br>जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा।।छावा॥<br>आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।।तें॥<br>प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू।।अहिनाहू॥<br>कबिकुल जीवनु पावन जानी।।राम जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी।।खानी॥<br>तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।बानी॥<br>छं0छं०-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।<br>रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।लह्यो॥
<br>उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
<br>बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।पावहीं॥<br>सो0सो०-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।<br>तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।361।।जसु॥३६१॥
<br>मासपारायण, बारहवाँ विश्राम
<br>इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने