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<br>सो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥
<br><br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥
<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
<br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम
<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
<br>–*–*– <br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू देहु सब काहू॥
<br>दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥
<br>–*–*–<br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
<br>दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥
<br>–*–*–<br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
<br>दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
<br>दो०-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
<br>दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
<br>सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥
<br><br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥
<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥