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<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥
<br>–*–*–<br>चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु राम सुनु रानी॥
<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥
<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥
<br>–*–*–<br>चौ०-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥
<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
<br>अति परिताप सीय मन माही। माहीं। लव निमेष जुग सब सय सम जाहीं॥
<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥
<br>–*–*–<br>चौ०-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥
<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥
<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू॥संदेहू॥
<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे॥जैसें॥
<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥
<br>–*–*–<br>दिसकुंजरहु चौ०-दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥
<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥
<br>संभुचाप बड बड़ बोहितु पाई। चढे चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥
<br>दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥
<br>–*–*–<br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही॥उचारहीं॥
<br>सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥
<br>प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
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<br>कोसिकरुप चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥<br>कौसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥