भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
कवि: [[तुलसीदास]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=तुलसीदास]][[Category:कविताएँ]]}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ <br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥<br>मुखछबि कहि हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥<br>दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥<br>अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥बखाना॥<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर भुज बलसींवा॥जोरि हिमभूधर कह्यो।<br>सुमन समेत बाम का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥<br>सिवँ कृपासागर ससुर कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥संतोषु सब भाँतिहिं कियो।<br>पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥<br>दो०-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
<br>
<br>चौ०चौ-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥<br>जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥<br>करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥<br>बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥लाइ उर लीन्हि कुमारी॥<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु भै अति छोभा॥प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥<br>सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥लपटानी॥<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥<br>जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।<br>सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥<br>दो०-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥२३४॥बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥
<br>
<br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥<br>जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥<br>तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥छं०-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।<br>तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥<br>यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।<br>कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥<br>दो०-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥२३५॥बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥१०३॥<br>–*–*–
<br>
<br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि सब होहिं सुखारे॥अति सुख पावा॥<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥<br>कीन्हेउँ प्रगट प्रेम बिबस मुख आव कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥<br>छं०-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥<br>सो०दो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
<br>
<br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥<br>सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥सूत्रधर अंतरजामी॥<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥<br>दो०-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।<br>बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥१०५॥<br>–*–*–<br>हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥<br>तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥<br>त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥<br>एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु पावा॥भयऊ॥<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥<br>कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥<br>तरुन अरुन अंबुज सम हिमकर नाहीं॥चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥<br>भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥<br>दो०-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
<br>
<br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥<br>कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥<br>दो०-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
<br>
<br>चौ०-नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥<br>ऐसेहिं तौं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥<br>दो०-सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
<br>
<br>मासपारायण, आठवाँ विश्रामचौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्रामअग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥<br>मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥<br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥<br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥<br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥<br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥<br>दो०-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।<br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
<br>
<br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥<br>तुरत राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥कहहु संकर सुखसीला॥<br>दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज थल अनुहारि॥२४०॥धाम॥११०॥
<br>
<br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। जो प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥<br>दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
<br>
<br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कथनीया॥कोउ उपकारी॥<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥<br>दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
<br>
<br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥<br>दो०-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
<br>
<br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। रामकथा सुंदर कर सर धनुष बाम बर काँधे॥तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥<br>भलि रचना तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥ध्याना॥<br>दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥
<br>
<br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥<br>सो०-सीय बिआहबि अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥पद।<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
<br>
<br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥<br>दो०-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
<br>
<br>चौ०-सिय सोभा निज भ्रम नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥<br>दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
<br>
<br>चौ०-चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए आनन रहित सकल भुआला॥रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥<br>दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
<br>
<br>चौ०-राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥<br>तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥<br>दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥
<br>
<br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥<br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥<br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥<br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥<br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥<br>उमा बचन सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥दो०-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥नवान्हपारायण,पहला विश्राम<br>दो०मासपारायण, चौथा विश्राम<br>सो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।<br>कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥१२०(ख)॥<br>सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।<br>सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥१२०(ग)॥<br>हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(घ॥
<br>
<br>चौ०-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥<br>डगइ हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥सोई॥<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥<br>देव दनुज तब तब प्रभु धरि मनुज बिबिध सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥
<br>
<br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥<br>जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥
<br>
<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ मुकुत कोई॥भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥<br>जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥<br>कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥
<br>
<br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥<br>गुर रघुपति सब एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥<br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥बरनी कबिन्ह घनेरी॥<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥<br>दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ कछु उर आवा॥कोइ।<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥<br>दो०सो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥
<br>
<br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥<br>दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
<br>
<br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
<br>
<br>चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥परितोषा॥<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष राम सुनु रानी॥नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥<br>मनहीं तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥माहीं॥<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
<br>
<br>चौ०-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत संभु बचन मुनि मन नहिं कछु लाभु न हानी॥भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥<br>अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
<br>
चौ०-<br>चौ०-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥<br>तन करुनानिधि मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
<br>
<br>चौ०-दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥<br>संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब संगु बनाई॥पूछत भयऊ॥<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥<br>दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
<br>
<br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत लखा देख सबु ठाढ़ें॥कोई॥<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥<br>छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥<br>सो०दो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
<br>
<br>चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥<br>कौसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
<br>
<br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥<br>दो०-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥<br>–*–*–<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद काहू॥<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥<br>सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥<br>दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥<br>–*–*–<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥<br>दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥<br>–*–*–<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥<br>दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥<br>–*–*–<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥<br>दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥<br>–*–*–<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥<br>दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥<br>–*–*–<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥<br>दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥<br>दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥<br>–*–*–<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥<br>दो०-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥<br>–*–*–<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥<br>दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥<br>–*–*–<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥<br>दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥<br>–*–*–<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥<br>दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥<br>–*–*–<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥<br>दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥<br>–*–*–<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥<br>दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥<br>–*–*–<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥<br>दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥<br>–*–*–<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥जोगी॥<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥<br>दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥<br>–*–*–<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥<br>दो०-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥<br>–*–*–<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥<br>दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥<br>–*–*–<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥<br>दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥<br>–*–*–<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि हेतु करौं अभिमाना॥<br>दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥<br>–*–*–<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय अंतरहित प्रभु भयऊ॥<br>दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥<br>–*–*–<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥<br>दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥<br>–*–*–<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥<br>कह माया बिबस भए मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥<br>दो०-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥<br>–*–*–<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥<br>दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥<br>–*–*–<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं मूढ़ा। समुझी नहिं चीन्हे॥हरि गिरा निगूढ़ा॥<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥<br>–*–*–<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥<br>दो०-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥<br>–*–*–<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥<br>खेलत रहे गवने तुरत तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥<br>दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥<br>–*–*–<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥<br>दो०-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥<br>–*–*–<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥<br>सीय रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥<br>दो०-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥<br>–*–*–<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥<br>दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥<br>–*–*–<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥<br>दो०-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥<br>–*–*–<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥<br>सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची भूमि बनाई॥<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥<br>दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥<br>–*–*–<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥<br>दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥<br>–*–*–<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥<br>दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥<br>–*–*–<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥<br>दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥<br>–*–*–<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥<br>दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥<br>–*–*–<br>गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥<br>निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥<br>महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी॥<br>गावहिं गीत मनोहर नाना। हरष रूप अति आनंदु मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि जाइ बखाना॥भोरें॥<br>तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥<br>दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥<br>राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥<br>दो०-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।<br>आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥<br>–*–*–<br>सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥<br>करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥<br>सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥<br>हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥<br>भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥<br>सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥<br>घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥<br>करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना ।<br>दो०-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान॥<br>नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥३०२॥<br>–*–*–<br>बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥<br>चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥<br>दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥<br>सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी॥<br>लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥<br>मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥<br>छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥<br>सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥<br>दो०-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।<br>जनु सब साचे होन मुनि हित भए सगुन एक बार॥३०३॥<br>–*–*–<br>मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥<br>राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥<br>सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥<br>एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥<br>आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥<br>बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥<br>असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥<br>नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥<br>दो०-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।<br>सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥३०४॥<br>मासपारायण,दसवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥<br>भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप जाहिं बखाने॥<br>फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥<br>भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥<br>मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥<br>दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥<br>अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता॥<br>देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥<br>दो०-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।<br>जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥<br>–*–*–<br>बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥<br>बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें॥<br>प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥<br>करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥<br>बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं॥<br>अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥<br>जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥<br>हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई॥<br>दो०-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।<br>लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥३०६॥<br>–*–*–<br>निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥<br>बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं जाइ बखाना॥<br>सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥<br>पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥<br>सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥<br>बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥<br>हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥<br>चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥<br>दो०- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।<br>उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥३०७॥<br>–*–*–<br>मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥<br>कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥<br>पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥<br>सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥<br>पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥<br>बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं॥<br>भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥<br>हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥<br>दो०-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।<br>मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥३०८॥<br>–*–*–<br>रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥<br>नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥<br>सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥<br>सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥<br>सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥<br>सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥<br>प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥<br>ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥<br>दो०-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।<br>जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥।३०९॥<br>–*–*–<br>जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥<br>इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे॥<br>इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥<br>हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥<br>जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥<br>पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥<br>कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥<br>बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥<br>दो०-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।<br>लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥३१०॥<br>–*–*–<br>बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥<br>तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥<br>सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥<br>स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥<br>कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥<br>भरतु रामही की अनुहारी। सहसा सो चरित्र लखि काहुँ सकहिं नर नारी॥<br>लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥<br>मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥<br>छं०-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।<br>बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥<br>पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥<br>ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥<br>सो०-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।<br>सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥३११॥<br>एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥<br>जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥<br>कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥<br>गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥<br>मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥<br>ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥<br>पठै दीन्हि पावा। नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥<br>सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥<br>दो०-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।<br>बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल॥३१२॥<br>–*–*–<br>उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥<br>सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥<br>संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥<br>सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥<br>लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥<br>कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥<br>भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥<br>गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥<br>दो०-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।<br>लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥३१३॥<br>–*–*–<br>सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥<br>सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥<br>प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥<br>देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥<br>चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना॥<br>नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥<br>तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥<br>बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥<br>दो०-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।<br>हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥३१४॥<br>–*–*–<br>जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥<br>करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥<br>एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥<br>देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥<br>साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥<br>सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥<br>मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥<br>पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥<br>दो०-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।<br>पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥३१५॥<br>–*–*–<br>केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥<br>ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥<br>सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥<br>सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥<br>बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा॥<br>राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥<br>जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥<br>कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥<br>छं०-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।<br>आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥<br>जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।<br>किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे॥<br>दो०-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।<br>भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥३१६॥<br>–*–*–<br>जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥<br>संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥<br>हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥<br>निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥<br>सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥<br>रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥<br>देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥<br>मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥<br>छं०-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।<br>बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥<br>एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।<br>रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥<br>दो०-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।<br>चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥३१७॥<br>–*–*–<br>बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥<br>पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥<br>सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥<br>कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥<br>बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥<br>सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी॥<br>कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥<br>करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी॥<br>छं०-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।<br>कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥<br>आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई॥<br>अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥<br>दो०-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।<br>सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥३१८॥<br>–*–*– सिर नावा॥
<br>
<br>नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥<br>बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥<br>पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥<br>करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥<br>दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥<br>समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥<br>नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥<br>एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥<br>छं०-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं॥<br>मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥<br>ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।<br>अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥<br>दो०-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।<br>मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥३१९॥<br>–*–*–<br>मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब रीतीं॥भेउ।<br>मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥<br>लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥<br>सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥<br>जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥<br>सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥<br>देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥<br>देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥<br>छं०-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे॥<br>निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥<br>कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।<br>कौसिकहि पूजत बिप्रबेष देखत फिरहिं परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥<br>दो०-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।<br>दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥३२०॥<br>–*–*–<br>बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥<br>कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥<br>पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती॥<br>आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू॥<br>सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥<br>बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥<br>कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥<br>पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥<br>छं०-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।<br>आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई॥<br>सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।<br>अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥<br>दो०-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।<br>करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥३२१॥<br>–*–*–<br>समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥<br>बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥<br>रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥<br>बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥<br>नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥<br>तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥<br>बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥<br>सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥<br>छं०-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।<br>नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥<br>कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।<br>मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं॥<br>दो०-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।<br>छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥३२२॥<br>–*–*–<br>सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥<br>आवत दीखि बरातिन्ह सीता॥रूप रासि सब भाँति पुनीता॥<br>सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥<br>हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥<br>सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥<br>गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥<br>एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥<br>तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥<br>छं०-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।<br>सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥<br>मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।<br>भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं॥१॥कौतुकी तेउ॥१३३॥
<br>
<br>कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो। चौ०-जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥<br>तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥<br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥<br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥<br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥<br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥<br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥<br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥<br>दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।<br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
<br>
<br>एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥चौ०-जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥<br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥<br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥<br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥<br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥<br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥<br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥<br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥<br>दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।<br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
<br>
<br>सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु चौ०–पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष लखि परै॥आवा॥<br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥<br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥<br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥<br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥<br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥<br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥<br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥<br>दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।<br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥
<br>
<br>मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥२॥चौ०-परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥<br>दो०-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥<br>बिप्र बेष धरि बेद डहकि डहकि परिचेहु सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥३२३॥काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥<br>–*–*–करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥<br>जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥<br>सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥<br>समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई॥कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥<br>जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना॥मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥<br>कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे॥दो०-श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।<br>निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥<br>पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥<br>बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥<br>छं०चौ०-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥<br>नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥<br>जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।<br>जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥१॥<br>जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।<br>मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥<br>करि मधुप मन तब मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥<br>ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै॥२॥मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥<br>बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।<br>भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि आँनद भरैं॥पाप मिटिहिं किमि मेरे॥<br>सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥<br>करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥३॥कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥<br>हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।<br>तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥<br>क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।<br>करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी॥४॥<br>दो०-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।<br>सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥३२४॥<br>–*–*–<br>कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं॥नयन लाभु सब सादर लेहीं॥<br>जाइ जेहि पर कृपा बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं करहिं पुरारी। सो थोरी॥न पाव मुनि भगति हमारी॥<br>राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।<br>मनहुँ मदन रति अस उर धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥<br>दरस लालसा सकुच महि बिचरहु जाई। अब थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥तुम्हहि माया निअराई॥<br>दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥<br>प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं॥अंतरधान॥<br>सत्यलोक नारद चले करत राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥गुन गान॥१३८॥<br>अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥<br>बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥<br>छं०चौ०-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन दसरथु भए।हरष बिसेषी॥<br>तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए॥अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥<br>भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।<br>केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥१॥<br>तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।<br>माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के॥<br>कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।<br>सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥२॥<br>जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।<br>सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥<br>जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।<br>सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥३॥<br>अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।<br>सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर हर गन बरषहीं॥<br>सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।<br>जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं॥४॥<br>दो०-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।<br>जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल चारि॥३२५॥पाया॥<br>–*–*–श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥<br>जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥<br>कहि न निसिचर जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥<br>कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।<br>गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥<br>बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥पुनि संसारा॥<br>लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥<br>दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥<br>तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥<br>छं०दो०-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।<br>प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥<br>सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।<br>सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥१॥रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥<br>कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।<br>बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥<br>संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब चौ०-एहि बिधि भए।जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥<br>एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥२॥<br>ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।<br>अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥<br>पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।<br>कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥३॥<br>बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।<br>दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥<br>तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥<br>दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥४॥बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥<br>दो०-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥<br>हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥३२६॥<br>मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि मनोज लजावन॥लगि जाहिं न गाए॥<br>जावक जुत पद कमल सुहाए। यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥ग्यानी॥<br>पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥<br>कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥<br>पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥<br>सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥<br>पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥<br>नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल सौंदर्ज निधाना॥दुख हारी॥<br>सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥<br>सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥<br>छं०सो०-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।<br>पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥<br>मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।<br>सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥१॥<br>कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।<br>अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥<br>लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।<br>रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥२॥<br>निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।<br>चालति नर मुनि कोउ नाहिं जेहि भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥मोह माया प्रबल॥<br>कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।<br>बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥३॥<br>तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।<br>चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित अस बिचारि मन सबहीं कहा॥माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥<br>जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।<br>चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥४॥<br>दो०चौ०-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥<br>सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥३२७॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥<br>–*–*–<br>पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥<br>परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत गवन कियो भूपा॥धरें मुनिबेषा॥<br>सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥<br>धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥<br>बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥<br>तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥<br>आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब लीन्हे॥कहिहउँ मति अनुसारा॥<br>सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥<br>दो०-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।<br>छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥३२८॥<br>–*–*–<br>पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान भरद्वाज सुनि अति अनुरागे॥संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥<br>भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥<br>परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥<br>चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥<br>छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥<br>जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥<br>समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥<br>एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥<br>दो०-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥<br>जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥३२९॥<br>–*–*–<br>नित नूतन राम कथा कलि मल हरनि मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥करनि सुहाइ॥१४१॥<br>बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥<br>देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥<br>प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥<br>करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥<br>तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥<br>अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई॥<br>सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई॥<br>दो०चौ०-बामदेउ स्वायंभू मनु अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥<br>आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥३३०॥दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥<br>–*–*–<br>दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥<br>चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई॥लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥<br>सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥<br>करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥<br>पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि देवहूति पुनि जाचक बृंदा॥तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥<br>कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥<br>चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥<br>एहि तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥प्रतिपाला॥<br>दो०सो०-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।<br>यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥३३१॥<br>–*–*–<br>जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥<br>दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥<br>नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥<br>नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ होइ काहू॥बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।<br>हृदयँ बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥<br>कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥<br>अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥<br>भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥<br>दो०चौ०-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥<br>भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥३३२॥तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥<br>–*–*–<br>पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥<br>सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥<br>जहँ जहँ आवत बसे बराती। बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥<br>बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥<br>भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा॥<br>तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥<br>मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥<br>कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥<br>दो०-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।<br>जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥<br>–*–*–<br>सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥<br>चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु लघु पानीं॥धरें सरीरा॥<br>पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं॥पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥<br>होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥<br>सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥<br>अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम सिखवहिं मृदु बानी॥धुरंधर नृपरिषि जानी॥<br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई॥करवाए॥<br>बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।<br>दो०-तेहि अवसर भाइन्ह द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित रामु भानु कुल केतु।अनुराग।<br>चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥३३४॥<br>–*–*–<br>चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥<br>कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥<br>लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥<br>को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥<br>मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥<br>पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे॥<br>निरखि राम सोभा उर धरहू। निज बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन फनि मूरति मनि करहू॥अति लाग॥१४३॥<br>एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥<br>दो०चौ०-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा॥<br>करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥३३५॥<br>–*–*–<br>देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥<br>रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥अभिलाष निंरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥<br>भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥<br>बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥<br>राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥<br>मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥<br>सुनत जौं यह बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥<br>हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥<br>छं०-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।<br>बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥<br>परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।<br>तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥<br>सो०-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।<br>जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥३३६॥<br>अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥<br>सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥<br>राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥<br>पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥<br>मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी॥<br>पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं॥<br>पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥<br>पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥<br>दो०-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।<br>मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥३३७॥<br>–*–*–<br>सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥<br>ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥<br>भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।<br>बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥<br>सीय बिलोकि धीरता भागी। संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे कहावत परम बिरागी॥समीर अधार॥१४४॥<br>लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥<br>समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥<br>बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई॥<br>दो०चौ०-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥<br>कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥३३८॥बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥<br>–*–*–मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥<br>बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई॥अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥<br>दासीं प्रभु सर्बग्य दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥<br>सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥<br>भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥<br>समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥<br>दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥<br>चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥<br>सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना॥<br>दो०-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।<br>चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥<br>–*–*–<br>निज जानी। गति अनन्य तापस नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥रानी॥<br>भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥<br>बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर राखी॥जब आई॥<br>बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥<br>पुनि कह भूपति बचन हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥<br>राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥<br>तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥<br>करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥<br>दो०-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।<br>मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समाति॥३४०॥समात॥१४५॥<br>–*–*–<br>मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥चौ०-सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥<br>सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥<br>जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥<br>राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस जो सरूप बस सिव मन मानस हंसा॥<br>करहिं जोग जोगी माहीं। जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥<br>ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥कारन मुनि जतन कराहीं॥<br>जो भुसुंडि मन समेत मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥निगम प्रसंसा॥<br>महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥<br>दो०-नयन बिषय मो कहुँ भयउ देखहिं हम सो समस्त सुख मूल।<br>सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥<br>–*–*–<br>सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥<br>होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक रूप भरि लेखा॥लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥<br>मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥<br>मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥<br>बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥<br>सुनि बर दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥रस पागे॥<br>करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥<br>बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥<br>दो०-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।<br>भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥<br>–*–*–<br>बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥<br>जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥<br>सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥<br>जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥<br>सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥<br>कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥<br>चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥<br>रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥<br>दो०चौ०-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥<br>अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥३४३॥ûअधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥<br>–*–*–नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥<br>हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥<br>झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥<br>पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥<br>निज निज केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥तेऊ॥<br>गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई॥<br>बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥<br>सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥<br>लगे करि कर सरिस सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥<br>दो०-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।<br>सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥३४४॥<br>–*–*–<br>भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥<br>मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥<br>नाभि मनोहर लेति जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए॥<br>देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥<br>जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज जमुन भवँर छबि निदरहिं मदन बिलासनि॥छीनि॥१४७॥<br>सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥<br>भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥<br>कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं॥<br>दो०चौ०-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।<br>प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥३४५॥<br>–*–*–<br>मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥<br>राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥<br>बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥<br>हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥<br>अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥<br>छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥<br>सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥<br>रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥<br>दो०-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।<br>चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥३४६॥<br>–*–*–<br>धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥<br>सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥<br>मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥<br>प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥<br>दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥<br>सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥<br>समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥<br>सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥<br>दो०-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।<br>बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥३४७॥<br>–*–*–<br>मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥<br>जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥<br>बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥<br>बने बराती पद राजीव बरनि नहि जाहीं। महा मुदित मुनि मन सुख न समाहीं॥मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥<br>पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥<br>करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥<br>आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी॥<br>सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥<br>दो०-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।<br>मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥३४८॥<br>–*–*–<br>करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥<br>भूषन मनि पट नाना जाती॥करही निछावरि जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित भाँती॥लच्छि उमा ब्रह्मानी॥<br>बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥<br>पुनि पुनि सीय भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम छबि देखी॥मुदित सफल जग जीवन लेखी॥बाम दिसि सीता सोई॥<br>सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥<br>बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥<br>देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥<br>देत न बनहिं निपट लघु लागी। छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥रहे नयन पट रोकी॥<br>दो०-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।<br>बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥३४९॥<br>–*–*–<br>चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥<br>तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। चितवहिं सादर पाय पुनित पखारे॥रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥<br>धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥<br>बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥<br>बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥<br>पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं॥<br>जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥<br>मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥<br>दो०-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु॥<br>भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥३५०(क)॥<br>लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।<br>मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं॥३५०(ख)॥<br>–*–*–<br>देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥<br>सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥<br>अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं॥<br>भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥<br>आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब परसे प्रभु निज निज धामहि॥<br>पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥<br>जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥<br>सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥<br>दो०-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।<br>तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥३५१॥<br>–*–*–<br>जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥<br>भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥<br>पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥<br>आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥<br>बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि सम धन्य न दूजा॥जानि।<br>कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥<br>भीतर भवन दीन्ह मागहु बर बासु। जोइ भाव मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥महादानि अनुमानि॥१४८॥<br>पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥<br>दो०चौ०-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।<br>पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥३५२॥<br>–*–*–<br>बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥<br>नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥<br>उर सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥धीरजु बोली मृदु बानी॥<br>बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई॥<br>बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥<br>नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं॥<br>प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥<br>देव नाथ देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥<br>दो०-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।<br>कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥३५३॥<br>–*–*–<br>पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥काम हमारे॥<br>जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥<br>लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥<br>बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥<br>देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें एक लालसा बड़ि उर अनंद कियो बासू॥<br>कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू॥<br>जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥<br>बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥<br>दो०-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।<br>भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥३५४॥<br>–*–*–<br>मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥<br>अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥<br>रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥<br>प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥<br>माहीं। सुगम अगम कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥<br>जात सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥नाहीं॥<br>नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥<br>बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥<br>दो०-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।<br>अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥३५५॥<br>–*–*–<br>भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥<br>सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥<br>उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥<br>रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ तासु प्रभाउ जान जेहिं जोवा॥<br>सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥<br>अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥<br>देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥<br>मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥<br>दो०-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु॥सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥<br>मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥३५६॥सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥<br>–*–*–<br>मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥<br>मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई॥<br>मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥<br>कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। सकुच बिहाइ मागु नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥<br>बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥<br>सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥<br>आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥<br>जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥<br>दो०-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।<br>सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥३५७॥<br>–*–*–<br>नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥<br>घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥<br>पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥<br>सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई॥<br>प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥<br>बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥<br>बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥<br>जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥<br>दो०-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।<br>प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥३५८॥<br>नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम<br>–*–*–<br>भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई॥<br>देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥<br>पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥<br>सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥<br>कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥<br>मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥<br>बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥<br>सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥<br>दो०-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।<br>उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥३५९॥<br>–*–*–<br>सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥<br>नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥<br>बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥<br>दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥<br>मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥<br>दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥कहउँ सतिभाउ॥<br>करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू॥<br>अस कहि राउ सहित चाहउँ तुम्हहि समान सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥<br>दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥<br>रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥<br>दो०-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।<br>जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥३६०॥<br>–*–*–<br>बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥<br>सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥<br>बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥<br>जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥<br>आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥<br>प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥<br>कबिकुल जीवनु पावन जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी॥<br>तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥<br>छं०-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।<br>रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥<br>उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।<br>बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥<br>सो०-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।<br>तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥३६१॥<br>मासपारायण, बारहवाँ विश्राम<br>इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने<br>प्रथमः सोपानः समाप्तः।<br>'''(बालकाण्ड समाप्त)'''सन कवन दुराउ॥१४९॥
<br>
<br>चौ०-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
<br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
<br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
<br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
<br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
<br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
<br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
<br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
<br>दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
<br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥