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<br>चौ०-जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
<br>गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥भवानी॥१॥
<br>पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
<br>बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥करहीं॥२॥
<br>बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
<br>हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥३॥
<br>दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
<br>अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥बखाना॥४॥
<br>छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
<br>का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
<br>सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
<br>पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
<br>दो०-नाथ उमा मन मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
<br>छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥
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<br>चौ-बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
<br>जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥दीन्ही॥१॥
<br>करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
<br>बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥कुमारी॥२॥
<br>कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
<br>भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥३॥
<br>पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
<br>सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥लपटानी॥४॥
<br>छं०-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
<br>फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
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<br>चौ०-तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
<br>आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥हिमवाना॥१॥
<br>जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
<br>जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥बखानी॥२॥
<br>करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
<br>हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥गयऊ॥३॥
<br>तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
<br>आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥जाना॥४॥
<br>छं०-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
<br>तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
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<br>संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
<br>बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥ठाढ़ी॥१॥
<br>प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
<br>अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥गौरीसा॥२॥
<br>सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
<br>बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥एहू॥३॥
<br>सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
<br>पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥भाई॥४॥
<br>दो०-प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
<br>सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥
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<br>चौ०-मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
<br>सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥मोरें॥१॥
<br>राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
<br>तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥धनुपानी॥२॥
<br>सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
<br>जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥बानी॥३॥
<br>प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
<br>परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥निवासू॥४॥
<br>दो०-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
<br>बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥१०५॥
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<br>हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
<br>तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥काला॥१॥
<br>त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
<br>एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥भयऊ॥२॥
<br>निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
<br>कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥मुनिचीरा॥३॥<br>तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत भ गत हृदय तम हरना॥<br>भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥हारी॥४॥
<br>दो०-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
<br>नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥१०६॥
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<br>बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
<br>पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥भवानी॥१॥
<br>जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
<br>बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥आई॥२॥
<br>पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
<br>कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥सैलकुमारी॥३॥
<br>बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
<br>चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥सेवा॥४॥
<br>दो०-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
<br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥
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<br>चौ०-जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
<br>तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥नाना॥१॥
<br>जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
<br>ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥भारी॥२॥
<br>प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
<br>सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥गाना॥३॥
<br>तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
<br>रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥कोई॥४॥
<br>दो०-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
<br>देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥
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<br>चौ०-जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
<br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥करहू॥१॥
<br>मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
<br>तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥ २॥
<br>अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
<br>प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥क्रोधा॥३॥
<br>तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥सुरनाथा॥४॥
<br>दो०-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
<br>बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥
<br>गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
<br>अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
<br>प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥धारी॥२॥
<br>पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
<br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥काहीं॥३॥
<br>बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
<br>राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥सुखसीला॥४॥
<br>दो०-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
<br>प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥११०॥
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<br>चौ०-पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
<br>भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥बिभागा॥१॥
<br>औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
<br>जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥गोई॥२॥
<br>तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
<br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥भाई॥३॥
<br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
<br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
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<br>चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
<br>जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥जाई॥१॥
<br>बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
<br>मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥बिहारी॥२॥
<br>करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
<br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥उपकारी॥३॥
<br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
<br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
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<br>चौ०-तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
<br>जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥समाना॥१॥
<br>नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
<br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥मूला॥२॥
<br>जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
<br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥समाना॥३॥
<br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
<br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
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<br>चौ०-रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
<br>रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥गिरिराजकुमारी॥१॥
<br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥नाना॥२॥ <br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥तोरी॥३॥
<br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
<br>एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
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<br>चौ०-अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
<br>लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥देखी॥१॥
<br>कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
<br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥दीना॥२॥
<br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
<br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
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<br>चौ०-सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
<br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥होई॥१॥
<br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥ २॥
<br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
<br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
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<br>चौ०-निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
<br>जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥कुबिचारी॥१॥
<br>चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
<br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥सोहा॥२॥
<br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
<br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
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<br>चौ०-एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
<br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥होई॥१॥
<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
<br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥ २॥
<br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
<br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
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<br>चौ०-कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
<br>सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥अंतरजामी॥१॥
<br>बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
<br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥तरहीं॥२॥
<br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
<br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
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<br>चौ०-ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
<br>तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥परेऊ॥१॥
<br>नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
<br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ २॥
<br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
<br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
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