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<br>प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥३॥
<br>हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
<br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥पावा॥४॥
<br>दो०-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
<br>रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥१११॥
<br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥३॥
<br>पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
<br>तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥लागी॥४॥
<br>दो०-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
<br>सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥
<br>जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥३॥
<br>कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
<br>गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥बिमोहनसीला॥४॥
<br>दो०-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
<br>सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥११३॥
<br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥३॥
<br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
<br>एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥भवानी॥४॥
<br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
<br>दो०-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
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