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<br>राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥२॥
<br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥३॥तोरी॥<br>उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥भाई॥३॥<br>एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥४॥भवानी॥<br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥ध्याना॥४॥
<br>दो०-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
<br>पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥११४॥
<br>मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥२॥
<br>जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
<br>हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥नाहीं॥३॥
<br>बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
<br>जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥काना॥४॥
<br>सो०-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
<br>सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥
<br>अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥१॥
<br>जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥ प्रसंगा॥२॥ २॥
<br>राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
<br>सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥बिहाना॥३॥
<br>हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
<br>राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥पुराना॥४॥
<br>दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
<br>रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥११६॥
<br>उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥२॥
<br>बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
<br>सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥सोई॥३॥
<br>जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
<br>जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥सहाया॥४॥
<br>दो०-रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
<br>जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥
<br>जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥१॥
<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
<br>आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥ गावा॥२॥ २॥
<br>बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
<br>आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥जोगी॥३॥
<br>तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
<br>असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥बरनी॥४॥
<br>दो०-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
<br>सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
<br>सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥२॥
<br>राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
<br>अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥जाहीं॥३॥
<br>सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
<br>भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥बीती॥४॥
<br>दो०-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
<br>बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥११९॥
<br>अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥ २॥
<br>प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
<br>राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥बासी॥३॥
<br>नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
<br>उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥पुनीता॥४॥
<br>दो०-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
<br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥१२०(क)॥
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