भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<br>
<br>चौ०-हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
<br>मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥होऊ॥१॥
<br>बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
<br>प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥हरषाने॥२॥
<br>अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
<br>आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥ओही॥३॥
<br>जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
<br>निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥दीनदयाला॥४॥
<br>दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
<br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
<br>
<br>चौ०-कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
<br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥भयऊ॥१॥
<br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
<br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥बनाई॥२॥
<br>निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
<br>मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥भोरें॥३॥
<br>मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
<br>सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥नावा॥४॥
<br>
<br>दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
<br>
<br>चौ०-जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
<br>तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥कोऊ॥१॥
<br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
<br>रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥बिसेषी॥२॥
<br>मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
<br>जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥सानी॥३॥
<br>काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
<br>मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥तेही॥४॥
<br>दो०-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
<br>देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
<br>
<br>चौ०-जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
<br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥मुसकाहीं॥१॥
<br>धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
<br>दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥निरासा॥२॥
<br>मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
<br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥जाई॥३॥
<br>अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
<br>बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥गाढ़ा॥४॥
<br>दो०-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
<br>हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
<br>
<br>चौ०–पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
<br>फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥पाहीं॥१॥
<br>देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
<br>बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥राजकुमारी॥२॥
<br>बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
<br>सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥बोधा॥३॥
<br>पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
<br>मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥करायहु॥४॥
<br>दो०-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
<br>स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥
<br>
चौ०-परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
<br>भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥धरहू॥१॥
<br>डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
<br>करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥साधा॥२॥
<br>भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
<br>बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥एहा॥३॥
<br>कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
<br>मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥दुखारी॥४॥
<br>दो०-श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
<br>निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥१३७॥
<br>
<br>चौ०-जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
<br>तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥हरना॥१॥
<br>मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
<br>मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥मेरे॥२॥
<br>जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
<br>कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥भोरें॥३॥
<br>जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
<br>अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥निअराई॥४॥
<br>दो०-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
<br>सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥१३८॥
<br>
<br>चौ०-हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
<br>अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥सुनाए॥१॥
<br>हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
<br>श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥दीनदयाला॥२॥
<br>निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
<br>भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।तहिआ।३॥
<br>समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
<br>चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥पाई॥४॥
<br>दो०-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
<br>सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥१३९॥
<br>
<br>चौ०-एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
<br>कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥करहीं॥१॥
<br>तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
<br>बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥सयाने॥२॥
<br>हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
<br>रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥गाए॥३॥
<br>यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
<br>प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥हारी॥४॥
<br>सो०-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
<br>अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥१४०॥
<br>
<br>चौ०-अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
<br>जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥भूपा॥१॥
<br>जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
<br>जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥बौरानी॥२॥
<br>अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
<br>लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥अनुसारा॥३॥
<br>भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
<br>लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥हेतू॥४॥
<br>दो०-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
<br>राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥
Anonymous user