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<br>चौ०-स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
<br>दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥लीका॥१॥
<br>नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
<br>लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥जाही॥२॥
<br>देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
<br>आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥कृपाला॥३॥
<br>सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥
<br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥प्रतिपाला॥४॥
<br>सो०-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
<br>हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥
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<br>चौ०-बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
<br>तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥दाता॥१॥
<br>बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
<br>पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥सरीरा॥२॥
<br>पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
<br>आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥जानी॥३॥
<br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
<br>कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।पुराना॥४॥
<br>दो०-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
<br>बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥
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<br>चौ०-करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
<br>पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥त्यागे॥१॥
<br>उर अभिलाष निंरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
<br>अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥परमारथबादी॥२॥
<br>नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
<br>संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥नाना॥३॥
<br>ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
<br>जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥अभिलाषा॥४॥
<br>दो०-एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
<br>संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥
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<br>चौ०-बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
<br>बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥बारा॥१॥
<br>मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
<br>अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥पीरा॥२॥
<br>प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
<br>मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥सानी॥३॥
<br>मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
<br>हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥आए॥४॥
<br>दो०-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
<br>बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥
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<br>चौ०-सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
<br>सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥नायक॥१॥
<br>जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
<br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥कराहीं॥२॥
<br>जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
<br>देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥मोचन॥३॥
<br>दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
<br>भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥भगवाना॥४॥
<br>दो०-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
<br>लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥
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<br>चौ०-सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
<br>अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥हासा॥१॥
<br>नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
<br>भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥दुतिकारी॥२॥
<br>कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
<br>उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥मनिजाला॥३॥
<br>केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
<br>करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥कोदंडा॥४॥
<br>दो०-तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
<br>नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥
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<br>चौ०-पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
<br>बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥जगमूला॥१॥
<br>जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
<br>भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥सोई॥२॥
<br>छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
<br>चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥सतरूपा॥३॥
<br>हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
<br>सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥करुनापुंजा॥४॥
<br>दो०-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
<br>मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥
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<br>चौ०-सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
<br>नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥हमारे॥१॥
<br>एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
<br>तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥कृपनाईं॥२॥
<br>जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
<br>तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥होई॥३॥
<br>सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
<br>सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥तोही॥४॥
<br>दो०-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
<br>चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥
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<br>चौ०-देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
<br>आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥आई॥१॥
<br>सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
<br>जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥लागा॥२॥
<br>प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
<br>तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥अंतरजामी॥३॥
<br>अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
<br>जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥लहहीं॥४॥
<br>दो०-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
<br>सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥
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