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|रचनाकार=सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
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घिर कर बैठने के लिए
बनाए थे जो घर
धो-पोंछ चमकाए ,सजाए थे जो घर
भड़भड़ा कर गिरे,धँसे-बिखरे
दब गईं इनमें ख़ुशियाँ, उदासियाँ
कहकहे, संताप, दुख-सुख
सब खो गया घर खो गया.
वर्तमान अतीत हो गया
इन आँगनों में चुगती थीं चिड़ियाँ
झूलती थीं लड़कियाँ
जश्न मनाते थे कबूतर
टूटी दीवारों पर चस्पाँ हैं पोस्टर
गुजरात पर भूकम्प का कहर
इस मलबे में दबी होगी
कोई रोटी पकाती माँ
मुन्ना नहलाती माँ
आरती सजाती दादी
परेड करते बच्चे
लाठी टेक खाँसते दादा
उजड़ा-सा अंजार
शानदार घर बेज़ार
धूल-पत्थर से भरे हुए
तमाम दुनिया बेख़्वाब
अपनों की खोदते लाशें
छाले-छाले हुए हाथ.



</poem>
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