भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पालन न हो सके इसीलिए
निज को बहकाया करता है।
चल इधर, बीन रूखी टहनीसूखी डालें,क्रमशः...भूरे डंठल,पहचान अग्नि के अधिष्ठानजा पहुँचा स्वयं के मित्रों मेंकर ग्रहण अग्नि-भिक्षालोगों से पड़ौसियों से मिल।'चिलचिला रही हैं सड़कें व धूल है चेहरे परचिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर कापर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रूचिरसंपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआरक्तिमा प्रकाशित करता-सावह गहन प्रेमउसका कपास रेशम-कोमल।मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा हूँ!
</poem>
397
edits