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काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक।
 
मृदु चिबुक चूम मेरे अधरों पर उसे रख दिया प्राण! ललक।
 
क्या बतलाऊँ कैसी तेरी प्रिय उमड़ी प्रीति अगाधा थी।
 
अनवरत गिरा बोलती जा रही राधा-राधा-राधा थी।
 
”तुम बिना न जी सकता“ कहते थे भाल हमारा सहलाकर।
 
उर पर लटकते हार से फिर तुम लगे खेलने लीलाधर।
 
तव हास-विलास-कला-विधुरा बावरिया बरसाने वाली ।
 
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥80॥
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