भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक।
मृदु चिबुक चूम मेरे अधरों पर उसे रख दिया प्राण! ललक।
क्या बतलाऊँ कैसी तेरी प्रिय उमड़ी प्रीति अगाधा थी।
अनवरत गिरा बोलती जा रही राधा-राधा-राधा थी।
”तुम बिना न जी सकता“ कहते थे भाल हमारा सहलाकर।
उर पर लटकते हार से फिर तुम लगे खेलने लीलाधर।
तव हास-विलास-कला-विधुरा बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥80॥
</poem>