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Kavita Kosh से
<poem>
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे अपने जिसम जिस्म के रोएं रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
पुर सुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अलफ़ाज़ अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं
हमारी गुफ़्तगू की ज़बान
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, महबुब महबूब
आह
मुहब्बत!