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बरगद / श्रीनिवास श्रीकांत

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<Poem>
कुछ मत कहो उसे
वह है बूढ़ा
दुबली टहनियों पर उसकी
करने नहीं आते बसेरा
अब
रंग-बिरंगे परिन्दे
न पत्तों के बीच से
गुज़रती है हवा
करतल ध्वनि के साथ

जाने कितनी बार
कटी इसकी टहनियां
जटाजूट तने
मगर यह महाकाय
न कभी कराहा
न इसने भरा निश्वास
लगता है मुझे वह
दादा की तरह
जो शायद लपक कर अभी ही
उठा लेगा कंधो पर
आत्मीय अंगुलियों से अपनी
देगा गुदगुदा

मगर वह मरणासन्न
न हिलता है न डुलता है

न सिरजता है गाथागान
न बेताल कथा

कभी जब ऋतु आती
वह बजता हरमोनियम की तरह
प्रेम की धड़कनों पर झूमता
रोता
जब गुज़रता उसके नीचे से
किसी आत्मीय का शव

पहाड़ की चोटी से देखने पर
तलहटी में बसा हमारा गांव
लगता था उसके पाश्र्व में
कभी बहुत ही आकर्षक
एक डोर से
खिंचे चले जाते हम
उसकी वृहदाकार छाया में
बनाते मिट्टी के घरौंदे
देखते उसकी जड़ों के पास
च्यूंटियों के उमड़ते जुलूस
करते बारिश आने का इन्तज़ार।

</poem>
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