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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन}}
|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
वह मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,<br>जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपलपागलपन लेकर प्याले से, वह मेरा मैंने त्याग दिया प्याला,<br>मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती हैसाकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,<br>भेंट जहाँ मस्ती मिल मधुशाला की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।<br><br>मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हालामदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला,<br>पागलपन लेकर प्याले सेगहरी, मैंने त्याग दिया प्यालाठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,<br>साकी से मिलकितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,<br>पी पाया!मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।<br><br>बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।
मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छंछा प्यालाकहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,<br>गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवालाकहाँ गया स्वपिनल मदिरालय,<br>कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!कितनी थोड़ी सी यौवन की हालापीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाहाय, मैं पी पाया!<br>कब पहचाना?बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।<br><br>फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,<br>कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला!<br>पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?<br>फूट चुका फिर भी वृद्धों से जब मधु का प्यालापूछा एक यही उत्तर पाया -अब न रहे वे पीनेवाले, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।<br><br>अब न रही वह मधुशाला!।१२५।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, <br>'हाला'अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',<br>फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-<br>त्रिपुंडी पंडित जी'मय-महिफल' अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला!।१२५।<br><br>'।।१२६।
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला'<br>,'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला',<br>क्यों न मौलवी चौंकेंकितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी<br>'मय-महिफल' अब अपना ली फिर भी पीनेवालों को है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।<br><br>एक पहेली मधुशाला।।१२७।
कितने मर्म जता जाती जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है बार-बार आकर हालाप्याला,<br>कितने भेद बता जाता जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है बार-बार आकर प्यालाहाला,<br>कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकीहै,<br>फिर भी पीनेवालों को जितना हो जो रिसक, उसे है एक पहेली मधुशाला।।१२७।<br><br>उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्यालाजिन अधरों को छुए,<br>जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,<br>जितनी उर की भावुकता जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो उतना सुन्दर साकी है,<br>जितना ही पागल बनकर नाचे वह जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।<br><br>आए मेरी मधुशाला।।१२९।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला,<br>जिस हर कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला,<br>आँख चार हों जिसकी हर घर में चर्चा अब होगी मेरे साकी से दीवाना हो,<br>मधुविक्रेता कीपागल बनकर नाचे वह जो आए हर आंगन में गमक उठेगी मेरी मधुशाला।।१२९।<br><br>सुरिभत मधुशाला।।१३०।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला<br>हर कर में देखा जाएगा सबने पाई अपनी-अपनी हाला,मेरे साकी का प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला<br>,हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की<br>हर आंगन साकी में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।<br><br>सबने अपना प्यारा साकी देखा,जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
मेरी हाला में सबने पाई अपनीयह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-अपनी नहीं मादक हाला,<br>मेरे प्याले में सबने पाया अपनायह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-अपना नहीं मधु का प्याला,<br>मेरे किसी समय की सुखदस्मृति है साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखाबनकर नाच रही,<br>जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।<br><br>नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
यह मदिरालय के आँसू हैंकुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, नहीं-नहीं मादक बना पाया हाला,<br>यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला,<br>!किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रहीपी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,<br>नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। <br><br>मधुशाला!।१३३।
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हालायदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,<br>कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!<br>पी पीनेवाले चल देंगेशून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, हाय, न कोई जानेगा,<br>कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।<br><br>जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला<br>यदि थोड़ीबड़े-सी भी यह मेरी मदमाती बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,<br>शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाईकलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,<br>जन्म सफल समझेगी जग में अपना मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी मधुशाला।।१३४।<br><br>सुकुमारी को,विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
बड़े-बड़े नाज़ों '''पिरिशष्ट से मैंने पाली है साकीबाला,<br>किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,<br>मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,<br>विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।<br><br>'''
==पिरिशष्ट स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,पर उपदेश कुशल बहुतेरों से==मैंने यह सीखा है,स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
स्वयं नहीं पीतामैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला, औरों को, किन्तु पिला देता मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,<br>स्वयं नहीं छूता, औरों को, पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर पकड़ा देता प्याला,<br>पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,<br>स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।<br><br>
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ालाबहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,<br>मेरे तन बहुतों के लोहू हाथों में है पचहत्तर प्रतिशत हालादो दिन छलक झलक रीता प्याला,<br>पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन परबढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के,<br>इससे हीमेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।<br><br>
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,<br>बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,<br>पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही<br>और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।<br><br> पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला<br>बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला<br>किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी<br>तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।<br><br/poem>
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