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माँ / केशव

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माँ अपने अँधेरे को
कहती नहीं
सुनती है
फिर हमें उससे दूर रखने के लिए
चुपचाप
सुबह का सपना बुनती है
माँ
हमारी तकलीफ में
उपस्थिति रहती है
अपनी तकलीफ से मोहलत लेकर
हमारी दुनिया में
माँ के अलावा भी
और बहुत कुछ
माँ की दुनियाँ में
सिर्फ एक औरत
सदियों से
हमारे सिवा
माँ की दहलीज़ हम
जिसे लाँघती नहीं वह
सपने में भी
हमारे लिए
आँगन
जिसमें खलते-खेलते
एक दिन हम
भीड़ में शामिल हो जाते अचानक
माँ
नहीं होती भीड़
इसलिए
भीड़ के लिए
मंगल कामना के साथ
चुपचाप लौट जाती
अपने भीतर प्रतीक्षारत
औरत के पास
माँ एक नदी है
बेशक हमारे लिए
पर अपने लिए
वह एक औरत है
अपने ही जल के लिए छटपटाती

माँ
हमारे लिए
एक उत्तर
अपने लिए एक सवाल
युग-युग से
माँ का यही हाल ।
</poem>
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