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{{KKRachna
|रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री
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क्या वह भी अरमान तुम्हारा ?

जो मेरे नयनों के सपने,
जो मेरे प्राणों के अपने ,
दे-दे कर अभिशाप चले सब-
क्या यह भी वरदान तुम्हारा ?

खुली हवा में पर फैलाता,
मुक्त विहग नभ चढ़ कर गाता
पर जो जकड़ा द्वंद्व-बन्ध में,-
क्या वह भी निर्माण तुम्हारा ?

बादल देख हृदय भर आया
'दो दो-बूँद' कहा, दुलराया ;
पर पपीहरे ने जो पाया, -
क्या वह भी पाषाण तुम्हारा ?

नीरव तम, निशीथ की बेला,
मरु पथ पर मैं खड़ा अकेला
सिसक-सिसक कर रोता है, जो -
क्या वह भी प्रिय गान तुम्हारा ?
</poem>
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