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Kavita Kosh से
जिससे शालीनता इतनी ज़्यादा टपक चुकी है
कि वहाँ एक तैरता हुआ पत्थर है
अपनी पराजित और जड़-विहीन हँसी पर
अतीत और मानसून का खोखलापन