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|रचनाकार=केदारनाथ सिंह
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कपड़े सूख रहे हैं
हज़ारों-हज़ार
मेरे या न जाने किस के कपड़े
रस्सियों पर टँगे हैं
और सूख रहे हैं

मैं पिछले कई दिनों से
शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ हवा को
वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है
उनहें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई
कपड़ों को धुन रही है हवा

कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं
फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े
आदमी के हाथ
और घुटनों के बराबर

मैं देख रहा हूँ
धूप देर से लोहा गरमा रही है
हाथ और घुटनों को
बराबर करने के लिए

कपड़े सूख रहे हैं
और सुबह से धीरे-धीरे
गर्म हो रहा है लोहा।

(1976)
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