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शांत जंगल को / विजय सिंह

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<Poem>
पगडंडी को छूकर
एक नदी
बहती है मेरे भीतर

हरे रंग को छूकर
मैं वृक्ष होता हूँ
फिर जंगल

मेरी जड़ों में
खेत का पानी है
और चेहरे में
धूसर मिट्टी का ताप
मेरी हँसी में
जंगल की चमक है।

गाँव की अधकच्ची पीली मिट्टी से
लिखा गया है मेरा नाम
मैं जहाँ रहता हूँ
उस मिट्टी को छूता हूँ

मेरे पास गाँव है, पहाड़, पगडंडी
और नदी-नाले
और यहाँ बसने वाले असंख्य जन
इनके जीवन से रचता है मेरा संसार

यहाँ कुछ दिनों से
बह रही है तेज़-तेज़ हवा
कि हवा में
खड़क-खड़क कर चटक रही हैं
सूखी पत्तियाँ

मैं हैरान हूँ
शान्त जंगल को
नए रूप में देखकर।
</poem>