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Kavita Kosh से
<br />उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
<br />समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
<br /><br />सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
<br />ये मैं क्या कह रहा हूँ
<br />ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
<br /><br />यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
<br />जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
<br />वे गश नहीं खाते
<br />शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता
<br /><br />हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
<br />पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
<br />लखनऊ अभी दूर है
<br />शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
<br /><br />दोस्त कहते हैं
<br />तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
<br />ये ठीक नहीं है
<br />पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
<br />बहनें आना छोड़ देती हैं
<br />पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
<br />मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
<br />एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
<br />वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
<br /><br />दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
<br />मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
<br />मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
<br /><br />‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
<br />पीड़ परायी जाणी रे’
<br /><br />हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
<br />हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
<br /><br />कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!