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Kavita Kosh से
सर्द ठंडी रातों में
नग्न अँधेरा ,
एक भिखारी -सा...
यूँ ही इधर-उधर डोलता है
तलाशता है
एक गर्माहट
कभी बुझते दिए दीये की रौशनी मेंकभी काँपते पेडों पेड़ों के पत्तों में
कभी खोजता है कोई सहारा
वस्त्रहीन
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