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मंडी हाउस पर नोएडा जाने वाली चार्टर्ड बस में त्रिलोचन<brpoem> त्रिलोचन को देखा<brpre>पकी दाढ़ी<br>गहरी आंखें<br>चेहरे पर ताप<br>हाथ में झोला<br>चुपचाप खड़े थे बस के दरवाजे पर<br><br> ऐ ताऊ<br>पैसे दे<br><br> ऐ ताऊ<br>पीछे बढ़ जा, सीट है बैठ जा<br><br> जैसे प्रगतिशील कवियों की ऩई नई लिस्ट निकली थी<br> हैऔर उसमें उस में कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था<br>।आँखें फाड़-फाड़ कर देखा, दोष नहीं थाउसी तरह इस कंडक्टर पर आँखों का। सब कहते हैं कि प्रेस छली है,शुद्धिपत्र देखा, उसमें नामों की बस में <br> मालाउनकी सीट नहीं छोटी न थी<br><br>। यहाँ भी देखा, कहीं त्रिलोचननहीं । तुम्हारा सुन सुन कर सपक्ष आलोचनसफर कटता रहा<br>कान पक गये थे, मैं ऐसा बैठाठालात्रिलोचन चलता नहीं, तुम्हारी बकझक सुना करूँ । पहले सेदेख रहा<br>हूँ, किसी जगह उल्लेख नहीं है,संघर्ष के तमाम निशान<br>तुम्हीं एक हो, क्या अन्यत्र विवेक नहीं है ।अपनी बांहों तुम सागर लांघोगे? – डरते हो चहले से ।बड़े बड़े जो बात कहेंगे, सुनी जायगीव्याख्याओं में समेटेउनकी व्याख्या चुनी जायगी।<br/pre>बिना बैठे<br>त्रिलोचन चलता रहा<br/poem>