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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=बशीर बद्र]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:गज़लग़ज़ल]][[Category:बशीर बद्र]]<poem>न जी भर के देखा न कुछ बात कीबड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~कई साल से कुछ ख़बर ही नहींकहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
न जी भर के देखा न कुछ बात उजालों की <br>परियाँ नहाने लगींबड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात नदी गुनगुनाई ख़यालात की <br><br>
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं <br>मैं चुप था तो चलती हवा रुक गईकहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की <br><br>
उजालों की परियाँ नहाने लगीं <br>सितारों को शायद ख़बर ही नहींनदी गुनगुनाई ख़यालात मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की <br><br>
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई <br>ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की <br><br> सितारों को शायद ख़बर ही नहीं <br>मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की <br><br> मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का <br>बरसती हुई रात बरसात की <br><br/poem>