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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रभा दीक्षित
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<Poem>
सवालों के जंगल डराने लगे हैं
यहाँ आइने मुँह चुराने लगे हैं।

अंधेरे में कुछ रोशनी के फ़रिश्ते
अदब की दुकानें सजाने लगे हैं।

जहाँ भूख की रोटियाँ खा रही हैं
वहाँ फलसफे सर झुकाने लगे हैं।

हमारे शहर के पुराने लुटेरे
नई बस्तियाँ भी बसाने लगे हैं।

ज़मीनी ज़रूरत के बुनियादी मुद्दे
कलावादियों को पुराने लगे हैं।

बदलते समय में सुबह के मुसाफ़िर
'प्रभा' की ग़ज़लें गुनगुनाने लगे हैं।
</poem>