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भला / रघुवीर सहाय

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<poem>
मैं कभी-कभी कमरे के कोने में जाकर
एकांत जहाँ पर होता है,
चुपके से एक पुराना काग़ज़ पढ़ता हूँ,

मेरे जीवन का विवरण उसमें लिखा हुआ,
वह एक पुराना प्रेम-पत्र है जो लिखकर
भेजा ही नहीं गया, जिसका पानेवाला,
काफ़ी दिन बीते गुज़र चुका।

उसके अक्षर-अक्षर में हैं इतिहास छिपे
छोटे-मोटे,
थे जो मेरे अपने, वे कुछ विश्वास छिपे,
संशय केवल इतना ही उसमें व्यक्त हुआ,
क्या मेरा भी सपना सच्चा हो सकता है?
जैसे-जैसे उसका नीला काग़ज़ पड़ता जाता फीका
वैसे-वैसे मेरा निश्चय, यह पक्का होता जाता है
प्रत्याशा की आशा में कोई तथ्य नहीं
उत्तर पाकर ही पाऊँगा कृतकृत्य नहीं
लेकिन जो आशा की,
जो पूछे प्रश्न कभी
अच्छा ही किया उन्हें जो मैंने पूछ लिया।
</poem>