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{{KKRachna
|रचनाकार=रवीन्द्रनाथ त्यागी
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}}
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ये इस्त्रीदार सूट, ये रंगीन टाई
यह शानदार दफ़्तर
सलाम झुकाते चपरासी,
घबराते बाबू लोग
शोफ़र के साथ
चमचमाती ब्रांड न्यू कार
प्रतीक्षा करते फ़ाइलों के ढेर
और स्टेनोग्राफ़र
कानून की क़िताबों के नीचे,
दबे लम्बे आफ़िस नोट
डायरी, दौरे, मुलाक़ातें और डिनर
सब-कुछ मिलकर एक ऎसा तिलस्म
कि बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता

जहाँ भी भागने की कोशिश करता हूँ
वहीं मिलता है बूट ठोकता पहाड़ी चौकीदार
जिसे कभी मैंने ख़ुद ही भरती किया था
मेरा सारा भविष्य दफ़न हो गया
मेरे वर्तमान के भीतर

वसन्त, खुले खेत, लोकगीत और लजाती
युवतियाँ
वे पहाड़ियाँ, वे समुद्रतट
वे चन्द्रमा, नदी, नाव और पाल
इन सबसे हो गया मैं निर्वासित
हमेशा-हमेशा के लिए
खिड़कियाँ लगी हैं पर लोहे के सलाखों की
देख सकता हूँ बाहर :
जा नहीं सकता।
</poem>