Changes

{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सौरीन्‍द्र बारिक
|संग्रह=
}}
<Poem>
 
रात की मकड़ी
पहले बुनती है अन्‍धकार का जाल
फिर उस जाले में फंस फँस जाती हैकई निरीह तारिकाएंतारिकाएँ
तड़पती हैं,
तड़पती रहती हैं।
किन्‍तु मेरे मन की मकड़ी
बुन रही है हताशा का जाल
और उसमें फंस फँस जाते हैं
कोई कोमल स्‍वप्‍न व्‍यथा के
वेदना के।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,165
edits