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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
}}
<poem>
उस लड़की का कोई नाम नहीं है
वह अकसर
हम मध्यवर्ग के लोगों के सपने में आती है
और हम उसको ठीक-ठीक पहचान भी नहीं पाते
हम अपने सपनों को कुछ नाम देते हैं,
मसलन -प्रेम
और बुनते हैं स्मृतियों और दुख का
ताना-बाना अपने चारों ओर
फिर जीते हैं एक जीवन
ढेर सारी कुंठाओं से भरा
ढेर सारी सफलताओं से आतंकित
इस सारे दौर में
हमारे ही वर्ग की एक लड़की
किसी पुल की रेलिंग पर खड़ी होती है -
आत्महत्या के लिये
तो किसी घर की टूटी मुंडेर पर
कभी वह अपनी बढ़ती उम्र और
अपनी देह का मीज़ान बैठाती है
तो कभी दुलारती है
पड़ोस के बच्चे को
जैसे वही उसके जीवन का प्रेम हो
फिर टूट-टूट कर रोती है सपने में
जितना नजदीक जाती है वह जीवन के
उतनी ही तरह से
पीड़ायें प्रवेश करती हैं
उसके शरीर और मन में
उतनी ही विकृत होती जाती है
हमारे सपनों की शक्ल
फिर आता है प्रेम
डर बन कर हमारे जीवन में
फिर आता है याद एक चेहरा
जिसे जीवन के न जाने किस उजाड़ में
हम छोड़ आये हैं
एक लड़की का नाम
कनेर के कुछ बिखरे फूल
फिर आती है याद विदा की एक रात
और जीवन का यह विशाल रणक्षेत्र
जिसमें कितने अकेले हैं हम
गुलामों की तरह लड़ते -
अपनी ही इच्छाओं
अपने ही संस्कारों से
ग़ुलामी के तमाम रिश्ते बनाते और जीते हुए
पोसते हैं एक सदिच्छा -
शोषणमुक्त समाज की ।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
}}
<poem>
उस लड़की का कोई नाम नहीं है
वह अकसर
हम मध्यवर्ग के लोगों के सपने में आती है
और हम उसको ठीक-ठीक पहचान भी नहीं पाते
हम अपने सपनों को कुछ नाम देते हैं,
मसलन -प्रेम
और बुनते हैं स्मृतियों और दुख का
ताना-बाना अपने चारों ओर
फिर जीते हैं एक जीवन
ढेर सारी कुंठाओं से भरा
ढेर सारी सफलताओं से आतंकित
इस सारे दौर में
हमारे ही वर्ग की एक लड़की
किसी पुल की रेलिंग पर खड़ी होती है -
आत्महत्या के लिये
तो किसी घर की टूटी मुंडेर पर
कभी वह अपनी बढ़ती उम्र और
अपनी देह का मीज़ान बैठाती है
तो कभी दुलारती है
पड़ोस के बच्चे को
जैसे वही उसके जीवन का प्रेम हो
फिर टूट-टूट कर रोती है सपने में
जितना नजदीक जाती है वह जीवन के
उतनी ही तरह से
पीड़ायें प्रवेश करती हैं
उसके शरीर और मन में
उतनी ही विकृत होती जाती है
हमारे सपनों की शक्ल
फिर आता है प्रेम
डर बन कर हमारे जीवन में
फिर आता है याद एक चेहरा
जिसे जीवन के न जाने किस उजाड़ में
हम छोड़ आये हैं
एक लड़की का नाम
कनेर के कुछ बिखरे फूल
फिर आती है याद विदा की एक रात
और जीवन का यह विशाल रणक्षेत्र
जिसमें कितने अकेले हैं हम
गुलामों की तरह लड़ते -
अपनी ही इच्छाओं
अपने ही संस्कारों से
ग़ुलामी के तमाम रिश्ते बनाते और जीते हुए
पोसते हैं एक सदिच्छा -
शोषणमुक्त समाज की ।
</poem>